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पुरुषार्थसिव पायः। अन्वयार्थी -[ तत्रादौ ] इन तीनोंमें प्रथम [ अखिलयलेन ] समस्त प्रकारके उपायोंसे [सम्यक्त्वं ] सम्यग्दर्शन [ समुपाश्रयणीयम् ] भले प्रकार अंगीकार करना चाहिये [यतः] क्योंकि [तस्मिन् सति एव ] इसके होते हुए ही [ ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान [च ] और [ चरित्रं ]. सम्यक्चारित्र [ भवति ] होता है।
भावार्थ-सम्यक्त्वके बिना ग्यारह अंग पर्यन्त पठन किया हुआ ज्ञान भी 'अज्ञान' कहलाता है, तथा महावतादिकोंकी साधनासे अन्तिम अवेयकपर्यन्त बंधयोग्य विशुद्ध परिणामोंसे भी असंयमी कहलाता है, परन्तु सम्यक्त्वसहित थोडासा जानना भी सम्यग्ज्ञानको और अल्पत्याग भी सम्यक्चारित्रको प्राप्त होता है । जैसे अंकरहित बिन्दी (शून्य) कुछ भी कार्यसाधक नहीं होती और वही अङ्कसहित होने पर दशगुणमानवर्द्धक हो जाती है, इसी तरह सम्यक्त्वरहित ज्ञान और चारित्र व्यर्थ ही हैं, परन्तु सम्यक्त्वपूर्वक अल्पज्ञान और अल्प चारित्र भी मोक्षके साधक हो जाते हैं । अतएव सबसे प्रथम सम्यक्त्वको हो अङ्गोकार करना चाहिये पश्चात् अन्य साधनोंको।
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ॥२२॥ अन्वयार्थी -[ जीवाजीबादीनां ] जीव अजीव प्रादिक [ तथानिां ] तत्त्वरूप पदार्थोंका [विपरोताभिनिवेशविविक्तम्] विपरीत प्राग्रहरहित अर्थात् औरका और समझनेरूप मिथ्याज्ञानसे रहित [श्रद्धानं ] श्रद्धान अर्थात् दृढ़ विश्वास [ सदैव ] निरन्तर ही [कर्त्तव्यम् ] करना चाहिये । क्योंकि [ तत् ] वह श्रद्धान ही [ प्रात्मरूपं] प्रात्माका रूप है ।
भावार्थ--तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण है, और वह श्रद्धान 'सामान्यरूप' और 'विशेषरूप' दो प्रकारका है । परभावोंसे भिन्न अपने चैतन्यस्वरूपको आपरूप श्रद्धान करना सामान्य तत्त्वार्थश्रद्धान है। यह नारक तिर्यञ्चादिक समस्त सम्यग्दृष्टी जीवोंके पाया जाता है, और जीव अजीवादिक सप्त तत्त्वोंकी विशेषतासे जानकर श्रद्धान करना विशेष तत्त्वार्थश्रद्धान है। वह मनुष्य देवादिक बहुश्रुत (विशेषज्ञानी) जीवोंके पाया जाता है, परन्तु राजमार्गसे ये दोनों श्रद्धान सप्त तत्त्वोंके जाने बिना नहीं हो सकते । क्योंकि--जो तत्त्वोंको न जाने तो श्रद्धान किसका करे ? यहाँ प्रसङ्गानुसार तत्त्वोंका वर्णन करना उचित होगा। अतएव उनका थोडासा स्वरूप दिया जाता है:
१-जीवतत्व-जो चैतन्यलक्षण सहित विराजमान हो, उसे जीब कहते हैं । इसके शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र ये तीन भेद होते हैं। (१) शुद्धजीव-जिन जीवोंके सम्पूर्ण गुण पर्याय अपने निजभाव को परिणमते हैं, अर्थात्
केवलज्ञानादि गुण शुद्धपरिणति पर्यायमें विराजमान होते हैं, उन्हें शुद्धजीव कहते हैं। . (२) अशुद्धजीव-जिन जीवोंके सम्पूर्ण गुण पाय विकार भावको प्राप्त हो रहे हों उन्हें ___ अशुद्धजीव कहते हैं, अर्थात् जिनके ज्ञानादिक गुण तो प्रावरणसे आच्छादित हो रहे हों,
और परिणति रागादिरूप परिणमन कर रही हो।