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________________ श्लोक - १७८ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः । रहने का प्रयत्न कर | यदि किसी पुद्गल में प्रासक्त रहकर मरण वेगा, तो स्मरण रखना, कि तुझे क्षुद्र जन्तु होकर उस पुगनका भक्षण प्रनन्त बार करना पड़ेगा। इस भोजनसे जो तू शरीरका उपकार करना चाहता है, सो किसी प्रकार भी उचित नहीं है, क्योंकि शरीर ऐसा कृतघ्नी है कि वह किमी के किये हुए उपकारको नहीं मानता, अतएव भोजनकी इच्छा छोड़ना ही बुद्धिमत्ता है । ७७ इस प्रकार हितोपदेशरूपी प्रमृतधाराके पड़ने से अन्नकी तृष्णा दूर कर कवलाहार बड़ा देना चाहिये तथा दुग्धादि पेय वस्तु बढ़ाकर पश्चात् क्रमसे उष्णोदक (गरम जल ) लेने मात्रका नियम करा देना चाहिये और यदि ग्रीष्मकाल, मरुदेश, तथा पैत्तिक प्रकृतिके कारण तृषाकी बाधा सहन करने में श्रसमर्थ होवे, तो केवल ठंडा पानो रख लेना चाहिये और शिक्षा देनी चाहिये कि हे प्राराधक, आर्य, परमागममें प्रशंसनीय मारणान्तिक सल्लेखना अत्यन्त दुर्लभ वर्णन की गई है, इसलिये तुझे विचारपूर्वक प्रतीचारादिदूषणोंसे इसकी रक्षा करना चाहिये । इसके पश्चात अशक्तताकी वृद्धि देखकर मृत्यकी निकटता निश्चय होनेपर प्राचार्यको उचित है कि समस्त संघकी अनुमति से संन्यास में निश्चलता के निमित्त पानीका भी त्याग करा देवे । इस अनुक्रमसे चारों प्रकारके आहारका त्याग होनेपर समस्त संघसे क्षमा करावे, निर्विघ्न समाधिकी सिद्धि के लिये कायोत्सर्ग करे । तदुपरान्त वचनामृत संतर्पण करे अर्थात् संसारसे वैराग्य उत्पन्न करनेवाले कारणोंका उक्त आराधक के कान में मन्द मन्द वाणीसे जप करे, श्रेणिक, वारिषेण, सुभग ग्वालादि पुरुषोंके दृष्टान्त सुनावे, और व्यवहार प्राराधना में स्थिर होकर निश्चय आराधना की तत्परता के लिये इस प्रकार उपदेश करे कि: हे प्राराधक ! श्रुतस्कंघका “एगो मे सासदो प्रादा" इत्यादि वाक्य, “रणमो अरिहंताणं” इत्यादि पद और 'अर्ह' इत्यादि अक्षर, इनमें से जो तुझे रुचिकर हों, उनका श्राश्रय करके अपने चित्तको तन्मय कर ! हे आर्य, "एगो में सासदो अप्पा" इस श्रुतज्ञानसे अपने आत्माकां निश्चय कर ! स्वसंवेदनसे प्रात्माकी भावना कर ! समस्त चिन्तानोंसे पृथक् होकर प्राणविसर्जन कर ! और यदि तेरा, मन किसी क्षुधा परीषहसे अथवा किसी उपसर्गसे विक्षिप्त हो गया होवे, तो नरकादि वेदनाओंका स्मरण करके ज्ञानामृतरूप सरोवर में प्रवेश कर। क्योंकि, अज्ञानी जीव शरीर में श्रात्मबुद्धि अर्थात् "मैं दुःखी हूं, मैं सुखी हूं, ऐसा सङ्कल्प करके दुःखी हुआ करते हैं, परन्तु भेदविज्ञानी जीव श्रात्मा और देहको भिन्न भिन्न मानकर देहके सुखसे सुखी व दुःख से दुखी नहीं होता, और विचार करता है कि मेरे मृत्यु नहीं है, . तो फिर भय किसका ? मेरे रोग नहीं है, फिर वेदना कैसी ? मैं बालक नहीं हूं, वृद्ध नहीं हूं, तरुण नहीं, हूं, फिर मनोवेदना कैसो ? और हे महाभाग्य ! इस थोड़ेसे शारीरिक दुःखसे कायर हाँके प्रतिज्ञाच्युत न होना । दृढ़ चित्त होकर परम निर्जराकी वांछा करना ! देख, जबतक तू श्रात्माका चिन्तवन करता हुआ, संन्यास ग्रहण करके सांथरेपर स्थित है, तबतक क्षण क्षण में तेरे प्रचुर कर्मो का विनाश होता है । क्या तुभे धीर वीर पांडवोंका चरित्र विस्मृत हो गया, जिन्हें लोहेके प्राभरण श्रग्निसे तप्त करके शत्रुने पहनाये थे, परन्तु तपस्यासे किंचित् भी च्युत न होकर आत्मध्यानसे मोक्षको प्राप्त हुए थे ? क्या तूमे महासुकुमार सुकुमाल कुमारका चरित्र नहीं सुना, जिनका शरीर दुष्टा श्यालनीने थोड़ा थोड़ा करके प्रतिशय कष्ट पहुँचाने के लिये कई दिनमें भक्षण किया था, परन्तु किञ्चित् भी मार्गच्युत न होकर
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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