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श्रीमद् राजचन्द्रर्जुन शास्त्रमालायाम्
[ ४ सल्लेखना जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया था ? ऐसे और भी असंख्य उदाहरण शास्त्रों में मिलेंगे, जिनमें दुस्सह उपसर्गों का सहन करके अनेक साधुग्रोंने स्वार्थ सिद्धि की है, क्या तेरा यह कर्तव्य नहीं है कि उनका
नुकरण करके जीवित घनादिकोंमें निर्वाचक हो, अन्तर बाह्य परिग्रहके त्यागपूर्वक साम्यभावसे निरुपाधिमें स्थिर हो, श्रानन्दामृतका पान करे ? इसके पश्चात् अर्थात् उपरि लिखित रीतिके उपदेशसे कषाय कृश करते हुए रत्नत्रयभावनारूप परिणमनसे पंचनमस्कारमत्र स्मरणपूर्वक प्राणविसर्जन करना चाहिये। यह संन्यासमरणकी संक्षेप विधि है ।
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नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतव्रो यतस्तनुताम् ।
सल्लेखनामपि ततः प्राहुर हिंसाप्रसिद्धयर्थम् ॥ १७६॥
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श्रन्वयार्थी - [ यतः ] क्योंकि [ श्रत्र ] संन्यास मरणसे [ हिंसायाः ] हिंसा के [ हेतवः ] हेतुभूत [ कषायाः ] कषाय [ तनुताम् ] क्षीणताको [ नीयन्ते ] प्राप्त होते हैं, [ ततः ] उस कारण से [ सल्लेखनामपि ] संन्यासको भी प्राचार्य गण [ अहिंसाप्रसिद्ध्यर्थं ] अहिंसा की सिद्धिके लिये [ प्राहुः ] कहते हैं ।
भावार्थ - जहाँ कषाय के प्रवेशसहित मन, वचन, कायके योगोंकी परणति होती है, वहाँ हीं हिंसा है और कषायके कृश करने को सल्लेखना कहते हैं, इस कारण सल्लेखना में कषाय क्षीण होने से हिंसा की सिद्ध होती है ।
इति यो व्रतरक्षार्थं सततं पालयति सकलशीलानि ।
वरयति पतिवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदश्रीः ।। १८० ।।
श्रन्वयार्थी - [ यः ] जो [ इति ] इस प्रकार [ वतरक्षार्थं ] पंचाणुव्रतों की रक्षा के लिये [ सकलशीलानि ] समस्त' शीलोंको [ सततं ] निरन्तर [ पालयति ] पालता है, [ तम् ] उस पुरुष को [ शिवपदश्री: ] मोक्षपदकी लक्ष्मी [ उत्सुका ] अतिशय उत्कण्ठित [ पतिवरा इव ] स्वयंवर की कन्या के समान [ स्वयमेव ] श्राप ही [ वरयति ] स्वीकार करती है, अर्थात् प्राप्त होती है ।
भावार्थ- स्वयंवर मंडप में जिस प्रकार कन्या श्राप ही अपने योग्य उत्तम पतिका शोध करके उसके कंठमें वरमाला डाल देती है, उसी प्रकार इस लोकमंडपमें मुक्तिरूपी कन्या अपने योग्य व्रतादिसंयुक्त जीवको स्वयं अपना स्वामी बना लेती है अर्थात् वह जीव मुक्त हो जाता है ।
प्रतिचाराः सम्यक्त्वे, व्रतेषु शीलेषु पञ्च पञ्चेति ।
सप्ततिरमी यथोदित शुद्धिप्रतिबन्धिनो हेयाः ॥ १८२ ॥
११- तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत और एक अन्तसल्लेखना । २ - पूर्वकालमें राजादिक वैभवशाली पुरुष अपनी कन्याओं के विवाह के लिये स्वयम्बरमंडप बनाते थे और उसमें देश विदेश के राजाम्रोंको बुलाते थे, उनमें से राजकन्या जिसको अच्छा समझती, उसे वरमाला पहनाकर अपना पति बना लेती थी।