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________________ ३० श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। [ ३-अहिंसा निरूपण भावार्थ-यदि किसी सज्जनपुरुषके सावधानतापूर्वक गमनादि करने में भी उसके शरीरसम्बन्ध से कोई जीव पीड़ित हो जावें, तो उसे हिंसाका दूषण कदापि नहीं लग सकता, क्योंकि उसके परिणाम कषाययुक्त नहीं थे। यही कारण है कि "प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा" यह हिंसाका लक्षण कहा है। यदि केवल "प्रारणव्यपरोणं हिंसा" अर्थात् प्राणोंको पीड़ा देना मात्र हो हिंसाका लक्षण कहा होता तो ऐसे अवसरपर अतिव्याप्तिदूषणका सद्भाव होता, इसके सिवाय अव्याप्तिदूषणका भी प्रवेश हो जाता, जो आगेके श्लोकसे प्रकट होगा। . . व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । म्रियतां जीवो मा वा धावत्यो ध्रुवं हिंसा ॥४६॥ अन्वयाथों-[ रागादीनां ] रागादिक भावोंके [वशप्रवृत्तायाम् ] वशमें प्रवृत्त हुई [ व्युत्थानावस्थायां ] प्रयत्नाचाररूप प्रमाद अवस्थामें [ जीवः ] जीव [म्रियतां] मरो [वा] अथवा [मा ] ‘म्रियतां' न मरो, [ हिंसा ] हिंसा तो [ध्रुवं ] निश्चयकर [ अग्ने] आगे ही [ धावति ] दौड़ती है। भावार्थ-जो प्रमादी जीव कषायोंके वशीभूत होकर गमनादि क्रिया यत्नपूर्वक नहीं करता, वह 'जीव मरे अथवा नहीं मरे', हिंसाके दोषका भागी अवश्य होता है; क्योंकि हिंसा कषाय भावों से उत्पन्न होती है, और इसके कषायभावका सद्भाव है ही। इस वाक्यसे प्राणोंको पीडा न होते भी हिंसा सिद्ध होती है। यदि पूर्वकथित प्राणव्यपरोपण मात्र ( प्राणपीड़नमात्र ) लक्षण कहा होता तो अव्याप्तिदूषण पाता। बिना किसीके प्राणोंका घात हुए ही हिंसा क्यों हो गई ? इस प्रश्नका समाधान प्रागेके श्लोकसे हो जायगा। यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तरारणां तु ॥ ४७ ॥ अन्वयाथौं --[ यस्मात् ] क्योंकि [प्रात्मा ] जीव [ सकषायः सन् ] कषाय भावों सहित होनेसे [ प्रथमम् ] पहिले [ प्रात्मना ] अापके ही द्वारा [ प्रात्मानम् ] आपको [ हन्ति ] घातता है, [तु] फिर [ पश्चात् ] पीछेसे चाहे [ प्राण्यन्तराणां ] अन्य जीवोंकी [ हिंसा ] हिंसा [ जायेत ] होवे [ वा ] अथवा [ न ] नहीं होवे। भावार्थ-हिंसा शब्दका अर्थ घात करना है, परन्तु यह घात दो प्रकारका है, एक आत्मघात, दूसरा परघातः। जिस समय आत्मामें कषाय भावोंकी उत्पत्ति होती है, उसी समय अात्मघात हो जाता है। पीछे यदि अन्य जीवों की आयु पूरी हो गई हो, अथवा पापका उदय आया हो तो उनका भी घात हो जाता है, अन्यथा आयुकर्म पूर्ण न हुआ हो, पापका उदय न पाया हो, तो कुछ भी नहीं होता, क्योंकि उनका घात उनके कर्मों के अधीन है; परन्तु आत्मघात तो कषायोंकी उत्पत्ति होते ही हो जाता है, और आत्मघात तथा परघात दोनों ही हिंसा है।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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