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श्लोक ४०-४१-४२-४३-४४-४५]
पुरुषार्थसिद्धय पायः ।
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भावार्थ - जिस पुरुष के मनमें, वचनमें, कायमें, क्रोधादिक कषाय प्रकट होते हैं, उसके शुद्धोपयोगरूप भावप्राणों का घात तो पहले होता है, क्योंकि कषायके प्रादुर्भावसे भावप्राणका व्यपरोपण होता है, यह प्रथम हिंसा है । पश्चात् यदि कषायको तीव्रता से दीर्घ श्वासोच्छ् वाससे, हस्त पादादिकसे वह अपने अंगको कष्ट पहुँचाता है, अथवा आत्मघात कर लेता है, तो उसके द्रव्य प्राणोंका व्यपरोपण होता है, यह दूसरी हिंसा है । फिर उसके कहे हुए मर्मवेधी कुवचनादिकोंसे या हास्यादिसे लक्ष्यपुरुषके अन्तरंग में पीड़ा होकर उसके भावप्राणोंका व्यपरोपण होता है, यह तीसरी हिंसा है । और अन्त में इसकी तीव्र कषाय और प्रमादसे लक्ष्यपुरुषको जो शारीरिक प्रांग छेदन आदि पीड़ा पहुँचाई जाती है, सो परद्रव्यप्राणव्यपरोपण होता है, यह चोथो हिंसा है । सारांश - कषायसे अपने परके भावप्राण व द्रव्यप्राणका घात करना यह हिंसाका लक्षण है ।
प्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवहंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥
अन्वयार्थी - [ खलु ] निश्चय करके [ रागादीनां ] रागादि' भावोंका [श्रप्रादुर्भावः ] प्रकट न होना [इति] यह [हिंसा ] अहिंसा [भवति ] है, और [तेषामेव ] उन्हीं रागादि भावोंकी [उत्पत्तिः ] उत्पत्ति होना [हिंसा] हिंसा [भवति ] होती है, [इति] ऐसा [जिनागमस्य ] जैनसिद्धान्तका [संक्षेप: ] सार है:
भावार्थ - अपने शुद्धोपयोगरूप प्राणका घात रागादिक भावोंसे होता है, अतएव रागादिक भावोंका प्रभाव ही अहिंसा है, और शुद्धोपयोगरूप प्राणघात होनेसे उन्हीं रागादिक भावोंका सद्भाव हिंसा है। परम अहिंसा धर्म प्रतिपादक जैनधर्मका यही रहस्य है ।
युक्ताचररणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि ।
न हि भवति जातु हिंसा प्रारणव्यपरोपणादेव ।। ४५ ।।
अन्वयार्थी - [ श्रपि ] और [ युक्ताचरणस्य ] योग्य आचरणवाले [ सतः ] सन्तपुरुषके [ रागाद्यावेशमन्तरेण ] रागादिक भावोंके विना [ प्रारणव्यपरोपरणात् ] केवल प्राणपीड़नसे [ हिंसा ] हिंसा [ जातु एव ] कदाचित् भी [ न हि ] नहीं [ भवति ] होती ।
१ - आदि शब्द द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, शोक, जुगुप्ता, प्रमादादिक समस्त विभाव भावोंका भी द्योतक है। उक्त विभाव भावोंका संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार जानना चाहिये : - राग - किसी पदार्थको इष्ट जानकर उसमें प्रीतिरूप परिणाम । द्वेष - किसीको अपना अनिष्ट जान उसमें प्रीतिरूप परिणाम । मोह - परपदार्थोंमें ममत्वरूप परिणाम । क.म- स्त्री पुरुष और नपुसन्कमें मैथुनरूप परिणाम । क्रोध - किसीकी अनुचित कृति जानके उसे दुःख देनेरूप परिणाम । मान -- अपनेको बड़ा मानना । माया - मन, वचन, काय में एकताका प्रभाव । लोभ - परपदार्थोंसे सम्बन्ध करनेके चाहरूप परिणाम । हास्य-उत्तम प्रत्तम चेष्टायें देख विकसित परिणाम । भय - दुःखदायक पदार्थोंको देख डररूप परिणाम । शोक- इष्टके अभाव में प्रार्त्त रूप परिणाम | जुगुप्सा-लानिरूप परिणाम । प्रमाद - कल्याणकारी कार्य में अनादर ।