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चौथी आवृत्ति की भूमिका
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इस ग्रन्थकी टीका सन् १९०४ में अबसे लगभग ४६ वर्ष पहले लिखी गई थी। उस समय मैं, इस क्षेत्रमें बिलकुल नया था और अपने परिश्रमके सिवाय मेरे पास ज्ञानकी कोई विशेष प्रजी नहीं थी। फिर भी इसे लोगोंने पसन्द किया और अब इसकी यह चौथी प्रावृत्ति प्रकाशित हो रही है।
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मैंने चाहा कई बार कि इसको एक बार अच्छी तरह पढ़ जाऊ और इसमें जो त्रुठिय़ां हैं, उनकी पूर्ति कर दू । परन्तु हर बार प्रकाशक उसे ज्योंका त्यों ही प्रकाशित कराले गये। अब ४३ वर्ष बाद जब इसकी चौथी प्रावृत्तिको प्रेस में दे दिया गया, तब भाई कुन्दनलाल ने इसकी सूचना मुझे दी। परन्तु दुर्भाग्यसे इसी समय मैं बीमार पड़ गया और इसलिए सिर्फ इतना ही कर सका कि प्रत्येक , फार्मका प्रफ एक बार देख गया और साधारण-से संशोधन कर सका। पं. बंशीधरजी शास्त्री (शोलापुर) से भी पूरे ग्रन्थके प्रफ दिखा लिये गये हैं, इस स्त्रयालसे कि कहीं कोई व्याकरण और सिद्धान्तसम्बन्धी अशुद्धि न रह जावे ।
जैसा कि पहले संस्करणकी प्रस्तावनामें लिखा गया है मैंने यह टीका मुख्यतः दो टीकाओंके आधारसे लिखी है
१ पंडित प्रवर टोडरमल की टीका जो कि अपूर्ण है और जिसे पं० दौलतरामजीने वि० सं० १८२७ में पूरा किया था।
२ शाहगंज (आगरा) के पं० भूधर मिश्रकृत टीका जो वि० सं० १८७१ में समाप्त की गई है।
स्व० बाबू सूरजभानजी वकील द्वारा प्रकाशित उनकी संक्षिप्त हिन्दी टीका भी उस समय मेरे सामने थी।
इधर पं० टोडरमलजीके जीवन के सम्बन्धमें जयपुरके पं० चैनसुखदासजीने 'वीरवाणी' में ( ३ फरवरी १९४८ ) जो बातें प्रकट की हैं उनका सारांश यह है
पं० टोडरमलजी विक्रमकी १६ वीं शताब्दिके असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् थे। अपनी २८ वर्षकी अल्पायुमें उन्होंने जैन-साहित्यकी अतुलनीय सेवा की थी। मोक्षमार्गप्रकाश उनकी मौलिक अमर कृति है, यह यद्यपि उनकी असमायिक मृत्युके कारण अधूरा ही रह गया है, फिर भी जितना है उतना ही अपूर्व है। वे विद्वान, धार्मिक क्रान्तिकर्ता, साहित्यसर्जक और असाधारण व्याख्याता थे। उनका जन्म वि० सं० १७६७ के लगभग हुआ था। ११-१२ वर्षकी अवस्थातक विद्याभ्यास करते रहे। १३-१४ वर्षके होते होते स्वमत-परमतके अनेक ग्रन्थोंका अभ्यास कर लिया। संभवतः उसी समय वे जयपुरसे सिंघाणा चले गये और तीन-साढ़े तीन वर्षमें चार विशाल ग्रन्थोंकी भाषाटीकायें लिखीं,