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माघवचन्द्रके शिष्य श्रमियचंदु (प्रमृतचन्द्र) विहार करते हुए वांभणवाड़े में आये, कविने उनकी अभ्यर्थनः की नौर उन्हींके कहनेसे प्रद्युम्नचरितकी रचना की । अमृत चन्द्रको कविने तपतेजदिवाकर, व्रत-तप-शीलरत्नाकर, तर्कलहरिशंकोलितपरमत वर-व्याकरण- प्रवरप्रसरितपद, जंगम सरस्वती प्रादि विशेषण दिये हैं ! इन विशेषणों में यद्यपि ऐसी कोई सूचना नहीं है जिससे हम निश्चयपूर्वक इन अमृतचन्द्रको प्रसिद्ध ग्रन्थकार अमृतचन्द्र कह सकें, अमृतचन्द्रने अपने गुरुका नाम भी कहीं नहीं दिया है, जिससे मलधारि माघवचन्द्रके शिष्य प्रमृतचन्द्रसे उनकी एकता सिद्ध की जा सके; फिर भी संभावना है कि दोनों एक ही हों और इसलिए यहां इस प्रसंगका उल्लेख कर देना उचित प्रतीत हुआ । ऊपर अमृतचन्द्र के समयका जो अनुमान किया गया है, उससे भी इसमें इतना अधिक अन्तर नहीं है कि उसका समाधान न हो सके । संभव है बांभणवाड़ में आनेके समय वे वृद्ध हों और प्रपने ग्रन्थोंकी रचना वे इससे बहुत पहले कर चुके हों ।
जनवरी १९३७
- नाथूराम प्रेपी