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________________ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालावाम् [३-सामायिक व्रत . अन्वयाथी -[ प्रतिदिनम् ] प्रतिदिन [आरोपितं] अङ्गीकार किये हुए [ सामयिकसंस्कारं ] सामायिकरूप संस्कारको [स्थिरीकर्तुम्] स्थिर करनेकेलिये [ द्वयोः ] दोनों [ पक्षाद्धयोः ] पक्षोंके अर्द्ध भागमें अर्यात् अष्टमी चतुर्दशीके दिन [उपवासः] उपवास [अवश्यमपि] अवश्य ही [ कर्तव्यः ] करना चाहिये। मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिनपूर्ववासरस्याद्ध। ... उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देहादौ ।। १५२ ।। अन्वयाथों -[ मुक्तसमस्तारम्भः ] समस्त प्रारम्भसे मुक्त होकर [ देहादौ ] शरीरादिकमें [ममत्वम्] प्रात्मबुद्धिको [ अपहाय ] त्यागकर [ प्रोषधदिनपूर्ववासरस्याद्ध ] उपवासके पूर्वदिनके प्राधे भागमें [उपवासं] उपवासको [गृह्णीयात् ] अङ्गीकार करे। भावार्थ- जिस दिन उपवास करना हो, उसके एक दिन पहिले दो पहरको समस्त प्रारंभ से ममत्व छोड़कर उपवास की प्रतिज्ञा धारण करना चाहिये। श्रित्वा विविक्तवसति समस्तसावद्ययोगमपनीय । सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिस्तिष्ठेत् ।। १५३ ।। अन्वयाथों-पश्चात् [ विविक्तवसति ] निर्जन वसतिकाओंको' [ श्रित्वा ] प्राप्त होकर [समस्तसावद्ययोगम् ] सम्पूर्ण सावध योग [अपनीय ] त्यागकर और [ सर्वन्द्रियार्थविरतः ] सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे विरक्त होता हा [ कायमनोवचनगुप्तिभिः] मनगुप्ति, वचनगुप्ति', और कायगुप्तिसहित [ तिष्ठेत् ] स्थित होवे। धर्मध्यानासक्तो वासरमतिवाह्य विहितसान्ध्यविधिम् । शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः ॥१५४।। अन्वयायथौं -[ विहितसान्ध्यविधिम् ] कर ली गई है प्रातःकाल और संध्याकालीन सामायिकादि क्रिया जिस में ऐसे [ वासरम् ] दिनको [धर्मध्यानासक्तः ] धर्मध्यानमें लवलीन होता हुआ [अतिवाह्य ] व्यतीत करके [ स्वाध्यायजितनिद्रः ] पठन-पाठनसे निद्राको जीतता हुआ [ शुचिसंस्तरे ] पवित्र संथारेपर [ त्रियामां ] रात्रिको [ गमयेत् ] गमावे अर्थात् पूर्ण करे। १-प्राचीन समयमें नगर ग्रामों के बाहिर धर्मात्मा लोग मुनियोंके ठहरने के लिये अथवा सामायिकादि करनेके लिये कुटी बनवा दिया करते थे उन्हें वसतिका कहते थे, कई नगरों में ये वसतिकायें अब भी पाई जाती हैं । २-अपध्यान, अपकथन और अपचेष्टा रूप पायसहित क्रिया। ३-जिस समय सावध क्रियाओंका त्याग करे, उस समय "मह समस्तसाद्ययोगविरतोस्मि" अर्थात् "मैं सम्पूर्ण पापके योगोंका त्यागी होता है" ऐसी प्रतिज्ञा करे। ४-मनमें विकल्प न करना और यदि करना, तो धर्मरूप करना। ५-मौनावलम्बी रहना अथवा धर्मरूप स्तोक ( थोड़ा ) बोलना । ६-शरीर निश्चल रखना, यदि कुछ चेष्टा करनी हो, तो, प्रमाणानुकल क्षेत्रमें धर्मरूप करनी।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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