________________
श्लोक १५२-१५७
पुरुषार्थसिद्धघु पायः भावार्थ-उपवास करनेवाला श्रावक उपवासके पहिलेका दिन. धर्म-ध्यानमें, संध्या सामा. यिकादि कार्योंमें और रात्रि पठन-पाठनमें पूर्ण करे।
प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिकं क्रियाकल्पम् ।
निर्वर्तयेद्यथोक्त जिनपूजां प्रासुकैद्रव्यैः ॥१५॥ अन्वयाथों-[ततः ] तदुपरान्त [ प्रातः ] प्रभात ही [प्रोत्थाय ] उठकर [ तात्कालिक ] उस समयकी [ क्रियाकल्पम् ] क्रियाओंको [ कृत्वा ] करके [प्रासुर' ] प्रासुक अर्थात् जीव रहित [ द्रव्यैः ] द्रव्योंसे [ यथोक्त ] पार्ष ग्रथोंमें जिस प्रकार कहा है उस प्रकारसे [ जिनपूजां ] जिनेश्वर देवकी पूजाको [ निवर्तयेत् ] करे। -
भावार्थ-यद्यपि प्रोषधोपवासमें समस्त प्रकारके प्रारंभोंका त्याग कहा गया है, परन्तु पूजाके प्रारंभका त्याग नहीं कहा है । अर्थात् पूजनके लिये स्नानादिक प्रारंभरूप किया वजित नहीं है। क्योंकि पूजाका पुण्य इतना अधिक है कि उसके प्रमाणमें प्रारंभजनित पाप गिनतोमें भी नहीं है । प्रोषधोपवासमें भगवान्का पूजन प्रासुक द्रव्योंसे करना चाहिये, सचित्तसे नहीं ।
उक्तन ततो विधिना नीत्वा दिवसं द्वितीयरात्रि च ।
प्रतिवाहयेत्प्रयत्नादधं च तृतीदिवसस्य ॥१५६।। अन्वयाथों-[ ततः ] इसके पश्चात् [ उक्तन ] पूर्वोक्त [ विधिना ] विधिसे [ दिवसं ] उपवासके दिनको [च ] और [ द्वितीयरात्रि ] दूसरी रात्रिको [ नीत्वा ] प्राप्त होके [च ] फिर [ तृतीयदिवसस्य ] तीसरे दिनके [अर्घ ] आधेको भी [ प्रयत्नात् ] अतिशय यत्नाचारपूर्वक [अतिवाहयेत् ] व्यतीत करे।
भावार्थ-ऊपर कहे हुए १५३ और १५४ वें श्लोकमें जिस प्रकार उपवासके पहिले दिनके अर्घ भागको अर्थात् उपवासकी प्रतिज्ञा ग्रहण करनेके पश्चात्के समयको व्यतीत करनेकी विधि कही है, उसी प्रकार उपवासके दिनको, उपवासकी रात्रिको अर्थात् दूसरी रात्रिको, और तीसरे दिनके आधेको अर्थात् उपवासके दूसरे दिनके दोपहरपर्यन्त समयको धर्म-ध्यानमें, सामायिकादि क्रियानोंमें, और पठन-पाठनमें यत्नपूर्वक व्यतीत करना चाहिये।
इति यः षोडशयामान गमयति परिमुक्तसकलसावधः ॥
तस्य तवानी नियतं पूर्णमहिसावतं भवति ॥१५७॥ १-सुक्कं पक्कं तत्तप्रविललवणेरण मिस्सियं दव्वं । जं जंतेरण य छिणं तं सव्वं फासुयं मरिणयं ॥
अर्थ-जो द्रव्य सूखा हो, पका हो, तप्त हो. प्राम्ल रस तथा लवण मिश्रित हो, कोल्हू, चरखी, चक्की, छुरी मादिक यंत्रोंसे छिन्न-भिन्न किया हुमा तथा संशोधित हो, सो सब प्रासुक है। यह गाथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृतटीकामें तथा केशववणिकृत गोम्मटसारकी संस्कृतटीकामें भी सत्य वचनके भेदों में कही गई है।