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श्रमद राजलाल जैनशास्त्रमालायाम् [३- रात्रि-भोजन त्याग कि वा बहुपलपिनकिति सिद्ध यो मनोवचनकायः ॥
परिहरति रात्रिभुक्ति सततमहिंसा स पालयति ॥ १३४ ।।
अन्वयाथों-[वा] अथवा [ बहुप्रलपितैः ] बहुत प्रलापसे [ किं ] क्या ? [ यः ] जो पुरुष [मनोवचनकायैः] मन, वचन पोर कायसे [रात्रिभुक्ति] रात्रि-भोजनका [परिहरति] त्याग देता है, [सः] वह [सततम्] निरन्तर [अहिंता] अहिंसाको [ पालयति ] पालन करता है, [ इति सिद्ध] ऐसा सिद्ध हुअा।
भावार्थ-जिस महाभाग्यने रात्रि भोजनका सर्वथा त्याग कर दिया है, वही सच्चा अहिंसक है । वि-भोजन त्यागके विना अहिंसावत की सिद्धि नहीं होती, अतएव कोई कोई प्राचार्य इसे अहिसा अस वन में गर्भित करते हैं।
इत्यत्र त्रिनयात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये स्वहितकामाः ।
अनुपरतं प्रयतन्ते प्रयान्ति वे मुक्तिमचिरेण ।। १३५ ।।
अन्वयार्थी-[ इनि ] इस प्रकार' [ अत्र } इस लोकमें [ ये ] जो [ स्वहितकामाः ] अपने हितके वांछक [मोक्षस्य] मोक्षके [त्रितयात्मनि] रत्नत्रयात्मक २ [मार्ग] मार्ग में [अनुपरत] सर्वदा उपरत हुए विना [प्रयतन्ते] प्रयत्न करते हैं, [ते] वे पुरुष [मुक्तिम्] मुक्तिको [अचिरेण] शीघ्र ही [प्रमन्ति] गमन करते हैं।
भावार्थ - इस जीवका हित मोक्ष है, क्योंकि अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार सुख नहीं है; अतएव मोक्षकी प्राप्ति का उपाय करना परम कर्तव्य है। जैसे किसी नगर में पहुंचने के लिये उस नगर के सन्मुख निरन्तर गमन करना पड़ता है, उसी प्रकार मोक्षरूप नगर में शीघ्र पहुँचने के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप मार्गोंके सन्मुख होकर चलना पड़ता है।
परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि ।
व्रतपालताय तस्माच्छोलान्यपि पालनीयानि ।। १३६ ।।
अन्वयाथौ -[किल ] निश्चय करके [ परिधयः इव ] जिस तरह परिधियाँ [ नगराणि] नगरोंकी रक्षा करती हैं उसी तरह [ शीलानि ] तीनगुणवत, और चार शिश्नावत' ये सप्त शील [व्रतानि ] पाँचों अणु व्रतोंका [ पालयन्ति ] पालन करते अर्थात् रक्षा करते हैं, [ तस्मात् ] अतएव [इलयालगाय] व्रतोंका पालन करने के लिये [शीलानि] सातशील व्रतों को [अपि) भी [पालनीयानि पालन करना चाहिये।
प्रविधाय सुप्रसिद्ध मर्यादा सर्वतोप्यभिज्ञानः ।
प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्या विरतिरविचलिता ।। १३७ ॥
१-पूर्व कशन के अनुसार । २-तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन, विशेषपरिज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान और हिसाबजनरूप. सम्यक् चारित्र । :--शिव्रत, देशवत और अनर्थदण्डनत । ४-सामयिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथि संविभाग ।