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________________ श्लोक ५०-५४ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः । ३३ भावार्थ - जो पुरुष बाह्य हिंसा तो थोड़ी कर सका हो, परन्तु अपने परिणामोंको हिंसाभावसे अधिक लिप्त रक्खे हो, वह तीव्र कर्मबंधका भागी होगा और जो पुरुष परिणामों में हिंसाके अधिक भाव न रखकर बाह्य हिंसा अचानक बहुत कर गया हो, वह मन्द कर्मबंधका भागी होगा । एकस्य संव तीव्र दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य । व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ।। ५३ ।। अन्वयार्थी - [ सहकारिणोः अपि हिंसा ] एकसाथ मिलकर को हुई भी हिंसा [ अ ] इस [ फलकाले ] उदयकालमें [ वैचित्र्यम् ] विचित्रताको [ व्रजति ] प्राप्त होती है, और [ एकस्य ] किसीको [ सा एव ] वही हिंसा [ तीव्र ] तीव्र [ फलं ] फल [दिशति] दरसाती है और [ अन्यस्य ] किसीको [ सा एव ] वही [ हिंसा ] हिंसा [ मन्दम् ] न्यून फल । भावार्थ - यदि दो पुरुष मिलकर कोई हिंसा करें, तो उनमें से जिसके परिणाम तीव्र कषायरूप हुए हों, उसे हिंसाका फल अधिक भोगना पड़ेगा, और जिसके परिणाम मन्द कषायरूप रहे हों, उसे अल्प फल भोगना पड़ेगा । प्रागेव फलति हिंसा क्रियमारणा फलति फलति च कृतापि । प्रारभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिसानुभावेन ।। ५४ ।। अन्वयार्थी - [ हिंसा ] कोई हिंसा । प्राक् एव ] पहिले ही [ फलति ] फल जाती है, कोई [ क्रियमाणा ] करते करते [ फलति ] फलती है, कोई [ कृता श्रपि ] कर चुकनेपर भी [ फनति ] फलती है, [च] और कोई [ कर्तुम् आरभ्य ] हिंसा करनेका प्रारंभ करके [ श्रकृता श्रपि ] न करनेपर भी [ फलति ] फल देती है । इसी कारण से [ हिंसा ] हिंसा [ प्रनुभावेन ] कषायभावों के अनुसार ही [ फलति ] फल देती है । भावार्थ - किसीने हिंसा करनेका विचार किया, परन्तु अवसर न मिलनेसे उस हिंसा के करनेके पहिले ही उन कषाय परिणामोंके द्वारा (जिनसे हिंसाका संकल्प किया गया था) बँधे हुए कर्मो का फल उदयमें आ गया, और तब इच्छित हिंसा करनेको समर्थ हो सका, ऐसी अवस्थामें हिंसा करनेसे पहिले ही उस हिंसाका फल भोग लिया जाता है । इसी प्रकार किसीने हिंसा करनेका विचार किया और उस विचार द्वारा बाँधे हुए कर्मोंके फलको उदय में आनेकी प्रवधि तक वह उक्त हिंसा करनेको समर्थ हो सका तो ऐसी दशा में हिंसा करते समय ही उसका फल भोगना सिद्ध होता है । किसीने सामान्यतः हिंसा करके फिर उसका फल उदयकाल में पाया अर्थात् कर चुकनेपर फल पाया। किसीने हिंसा करनेका आरम्भ किया था, परन्तु किसी कारण हिंसा करने में शक्तिवान् नहीं हो सका, तथापि प्रारंभजनित बंधका फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ेगा, अर्थात् न करनेपर भी हिंसाका फल भोगा जाता है । प्रयोजन केवल इतना ही है, कि कषायभावों के अनुसार फल मिलता है । ५
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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