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________________ ३२ श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । नाशयति करणचरणं स बहिःकररणालसो बालः ॥५०॥ अन्ववार्थी - [ यः ] जो जीव [निश्चयम् ] यथार्थ निश्चयके स्वरूपको [ श्रबुध्यमानः ] नहीं जानकर [ तमेव ] उसको ही [ निश्चयतः ] निश्चयश्रद्धान' से [ संयते ] अंगीकार करता है, [ सः ] वह [ बाल: ] मूर्ख [ बहिःकरणालसः ] बाह्य क्रियामें आलसी है और [ करणचरणं ] बाह्यक्रियारूप प्राचरणको [ नाशयति ] नष्ट करता है । [ ३- अहिंसाव्रत अर्थात् - जो जीव निश्चयनयके स्वरूपको न जानकर व्यवहाररूप बाह्य परिग्रहके त्यागको निश्चयसे मोक्षमार्ग जान अंगीकार करता है, वह मूर्ख शुद्धोपयोगरूप आत्माकी दशाको नष्ट करता है । भावार्थ - जो कोई पुरुष यह कहता है कि मेरे अन्तरंग परिणाम स्वच्छ होना चाहिये, बाह्य परिग्रहादिक रखने या भ्रष्टरूप प्राचरण करनेसे मुझमें कोई दोष नहीं आ सकता, वह अहिंसा के आचरणको नष्ट करता है, क्योंकि बाह्य निमित्तसे अन्तरंग परिणाम युद्ध होते ही हैं । अतएव एक ही पक्ष ग्रहण नहीं करके निश्चय और व्यवहार दोनों ही अंगीकार करना चाहिए । विधायापि हि हिसां हिंसाफलभुग् भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसा फलभाजनं न स्यात् ।। ५१ ।। श्रन्वयार्थी - [हि ] निश्चयकर [ एक ] एक जीव [ हिंसां ] हिंसाको [ प्रविधाय अपि ] नहीं करके भी [ हिंसा फलभुग् ] हिंसा - फलके भोगनेका पात्र [ भवति ] होता है, और [ अपर: ] दूसरा [हिंसां कृत्वा श्रपि ] हिंसा करके भी [ हिंसा फलभाजनं ] हिंसा के फनको भोगनेका पात्र [ न स्यात् ] नहीं होता है । भावार्थ - जिसके परिणाम हिंसारूप हुए, चाहे वे परिणाम हिंसाका कोई कार्य न कर सके हों तो भी वह जीव हिंसा के फलको भोगेगा, और जिस जीवके शरीरसे किसी कारण हिंसा तो हो गई परन्तु परिणामों में हिंसा नहीं आई, वह हिंसा करनेका भागी कदापि नहीं होगा । एकस्यात्पा' हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । श्रन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ।। ५२ ।। अन्वयार्थी - [ एकस्य ] एक जीवको तो [ श्रल्पा ] थोड़ी [ हिंसा हिंसा [काले ] उदयकालमें [ अनल्पम् ] बहुत [ फलम् ] फलको [ ददाति ] देती है, और [ श्रन्यस्य ] दूसरे जीवको [ महाहिंसा ] बड़ी भारी हिंसा भी [ परिपाके ] उदय समय में [ स्वल्पफला ] बिलकुल थोड़े फलको देनेवाली [ भवति ] होती है । १ - निश्चयश्रद्धासे अन्तरंग हिंसाको ही हिंसा मानता है । २- ४५ वें श्लोक में भी यही भाव प्रदर्शित किया गया है । ३- ' उपगीति' - नामक श्रार्याछन्द, १२+१४, १२ + १५ मात्रा ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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