________________
४४ श्रीमद् राजचन्द्रजैन शास्त्रमालायाम्
[३-अहिंसा व्रत अन्वयाथों-[ धनलवपिपासितानां ] थोड़ेसे धनके प्यासे और [विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् ] शिष्योंको विश्वास उत्पन्न करनेके लिये दिखलानेवाले [ खारपटिकानाम् ] खारपटिकोंके [ झटितिघटचटकमोक्षं ] शीघ्र ही घड़े के फटनेसे चिड़ियाके मोक्षके समान मोक्षको [ नैव श्रद्धयं ] श्रद्धानमें नहीं लाना चाहिये ।
भावार्थ-खारपटिकों के ( कत्थेके रंगका कपड़ा पहिननेवाले एक प्रकारके संन्यासी ) समान मोक्ष मान करके किसी अन्य जीवका तथा अपना प्राणघात नहीं कर डालना चाहिये। क्योंकि खारपटिक शरीरके छूट जानेको ही मोक्ष मानते हैं।
दृष्ट्वा परं पुरस्तादशनाय क्षामकुक्षिमायान्तम् ।
निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्मापि ॥ ८६ ॥ अन्वयार्थी-[च ] और [ प्रशनाय ] भोजनके लिये [ पुरस्तात् ] सन्मुखसे [ प्रायान्तम् ] आये हुए [ अपरं ] अन्य [क्षामकुक्षिम् ] दुर्बल उदरवाले अर्थात् भूखे पुरुषको [ दृष्ट्वा ] देख करके [ निजमांसवानरभसात् ] अपने शरीरका मांस देनेकी उत्सुकतासे [ प्रात्मापि ] अपनेको भी [ न पालभनीयः ] नहीं घातना चाहिये ।
भावार्थ-यदि कोई मांसभक्षी जीव पाकर भोजनके लिये याचना करे, तो उसको दया करके स्वशरीरके मन्दमोहसे अपने शरीरका मांस नहीं दे देना चाहिये। क्योंकि एक तो मांसभक्षी जीव दानका पात्र ही नहीं है, दूसरे मांसका दान शास्त्रसे तथा धर्मसे बहिर्भूत और निंद्य है, तीसरे 'आत्मघाती महापापी' यह उक्ति जगत्प्रसिद्ध है।
को नाम विशति मोहं नयभङ्गविशारदानुपास्य गुरुन् ।
विदितजिनमतरहस्यः श्रयन्नहिंसा विशुद्धमतिः ॥ ६ ॥ अन्वयार्थी -[नवभङ्गविशारदान्] नयभङ्गोंके जानने में प्रवीण [गुरुन्] गुरुप्रोंकी [उपास्य] उपासना करके [विदितजिनमतरहस्यः].जिनमतके रहस्योंका जाननेवाला [को नाम '] ऐसा कौनसा [ विशुद्धमतिः ] निर्मल बुद्धिधारी है जो [ अहिंसां श्रयन् ] अहिंसाका आश्रय लेकर [ मोहं ] मूढ़ताको [ विशति ] प्राप्त होगा?
भावार्थ-जो पुरुष अहिंसा-धर्मको जान गया है, वह उपर्युक्त कुतकियोंके मिथ्यामतोंमें कदापि काल श्रद्धान नहीं कर सकता।
यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि ।
तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भवाः सन्ति चत्वारः ॥१०॥ अन्वयाथों-[यत्] जो [किमपि] कुछ भी [ प्रमादयोगात् ] प्रमाद कषायके योगसे [ इदं ] यह [असदभिधानं] स्वपरको हानिकारक अथवा अन्यथारूप वचन [विधीयते] विधिरूप किया जाता
१-नाम इति प्रशिद्धौ । २-अपिशब्दोः निश्चयात्मकश्च ।