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________________ ४५ लोक ८६-६४ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः । अर्थात् कहा जाता है [ तत् ] उसे [ अनृतं अपि ] निश्चयकर अनृत [विज्ञेयं ] जानना चाहिये और [ तद्भ ेदाः ] उसके भेद [ चत्वारः चार [ सन्ति ] हैं | स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ।। ६२ ।। अन्वयार्थी – [ यस्मिन् ] जिस वचनमें [ स्वक्षेत्रकालभावः ] अपने द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव करके [ प ] विद्यमान भी [ वस्तु ] वस्तु [ निषिद्धयते ] निषेधित की जाती है [ तत् ] वह [ प्रथमम् ] प्रथम [ असत्यं ] असत्य [ स्यात् ] होता है, [ यथा ] जैसे [ अत्र ] "यहां [ देवदत्तः ] देवदत्त [ नास्ति ] नहीं है ।" भावार्थ- देवदत्त नामक कोई पुरुष एक स्थानमें बैठा था, उसके विषय में किसी पुरुषने आकर पूछा कि "देवदत्त है ?" उत्तर दिया गया " नहीं है !" इस प्रकार अपने द्रव्य, क्षेत्र २, काल, भाव से प्रस्तिरूप ( मौजूद ) वस्तुको नास्तिरूप * ( गैरमौजूदा ) कहना असत्यका प्रथम भेद है । असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः ।। ६३ ।। अन्वयार्थी - [हि ] निश्चयकर [ यत्र ] जिस वचनमें [ तैः परक्षेत्रकालभावः ] उन परद्रव्य क्षेत्र काल भावों करके [ असत्यपि ] अविद्यमान भी [ वस्तुरूपं ] वस्तुका स्वरूप [ उद्भाव्यते ] प्रकट किया जाता है [ तत् ] वह [ द्वितीयं ] दूसरा [ श्रनृतम् ] असत्य [ स्यात् ] होता है [ यथा ] जैसे [ श्रस्मिन् ] यहाँपर [ घट श्रस्ति ] घड़ा है । भावार्थ - जहाँपर घड़ के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका अस्तित्व नहीं है, वहाँपर किसीके पूछने पर कह देना कि, “यहाँ घड़ा है ? यह असत्यका दूसरा भेद है। वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाऽश्वः ।। ६४ ।। अन्वयार्थी - [ च ] और [ यस्मिन् ] जिस वचनमें [ स्वरूपात् ] अपने चतुष्टयसे [सत् अपि ] विद्यमान भी [ वस्तु ] पदार्थ [ पररूपेण ] अन्य के स्वरूपसे [ श्रभिधीयते ] कहा जाता है, सो [ इदं] यह [ तृतीयं श्रनृतम् ] तीसरा असत्य [ विज्ञेयं ] जानना चाहिये [ यथा ] जैसे [ गौः ] बैल [ अश्वः ] घोड़ा है [ इति ] ऐसा कहना । भावार्थ - जहाँपर बैल स्वचतुष्टयसे मौजूद है, वहाँपर कह देना कि, "यही घोड़ा है" अर्थात् कुछका कुछ कह देना, यह असत्यका तीसरा भेद है । १ - जो पदार्थ जिस रूपमें स्थित है, सद्द्रव्यलक्षणमिति तत्त्वार्थे । २ द्रव्य जिस क्षेत्रको रोककर स्थित हो । ३ - द्रव्य जिस कालमें जिस रूपसे परिरण में । ४- द्रव्यका निज भाव । ५- इस उदाहरण में देवदत्त अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप चतुष्टयसहित होनेपर भी नास्तिरूप कहा गया है, अतएव असत्य भाषण हुआ ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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