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________________ श्लोक २२२-२२५ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः भावार्थ-जिस प्रकार प्राकाश रजयुक्त नहीं होता, सदा अपने स्वभावमें स्थित रहता है, किसके द्वारा घाता नहीं जा सकता और अत्यन्त निर्मल होता है, उसी प्रकार या अपनी निरावरण निरवसान अनन्त शक्तिसे विराजमान स्वभावप्रात हाना है और प्रनन्तकाल तक सा है। कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकलविषयविषयात्मा । परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमयो नन्दति सदैव ।। २२४ ॥ अन्वयाथों-[कृतकृत्यः ] कृतकृत्य [ सकलविषयविषयात्मा ) समस्त पदार्थ हैं विषयभूत जिनके अर्थात् सब पदार्थों के ज्ञाता [परमानन्दनि मग्नः] विषयानन्दसे रहित ज्ञानानन्दमें अतिशय मग्न [ज्ञानमयः ] ज्ञानमय ज्योतिरूप [ परमात्मा ] मुक्तात्मा [ परमपदे ] सबसे ऊपर मोक्षपदमें (सदैव] निरन्तर ही [ नन्दति ] अानन्दरूप स्थित है। एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्तो बस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी ।। २२५ ॥ अन्वयाथी"- [ मन्थाननेत्रम् ] मथानीके नेताको [गोपो इव ] बिलोवनेवाली ग्वालिनीकी तरह [ जनो नोतिः ] जिनेन्द्र देवकी स्याद्वादनीति या निश्चय व्यवहाररूप नीति [ वस्तुतत्त्वम् ] वस्तुके 'वरूपको [ एकेन ] एक सम्यग्दर्शनसे [प्राकर्षन्ती | अपनी ओर खींचती है, [ इतरेण ] दूसरे प्रर्थात सम्यग्ज्ञानसे [ श्लथयन्ती' ] शिथिल करती है, और [अन्तेन] अन्तिम अर्थात् सम्यकचारित्रसे सिद्धरूप कार्यके उत्पन्न करनेसे [ जयति ] सबके ऊपर वर्तती है। भावार्थ-जिस प्रकार दहीको बिलोवनेवाली ग्वालिनी मथानीकी रस्सीको एक हाथसे खींचती है. दूसरेसे ढीलो कर देती है, और दोनोंकी क्रियासे दहीसे मक्खन बनाने की सिद्धि करती है, उसी प्रकार जिनवाणीरूप ग्वालिनी सम्यग्दर्शनसे तत्त्वस्वरूपको अपनी और खींचती है, सम्यग्ज्ञानसे पदार्थके भावको ग्रहण करती है, पौर दर्शन ज्ञानकी आचरणरूप क्रियासे अर्थात् सम्यक्चारित्रसे परमात्मपद प्राप्तिकी सिद्धि करती है। अथवा: अन्वयाथौं -[मन्थाननेत्रम् ] मथानीके नेताको [गोपी इव] ग्वालिनीके समान जो [ वस्तुतत्त्वम् ] वस्तुके स्वरूपकी [ एकेन अन्तेन ] एक अन्तसे अर्थात् द्रव्याथिकनयसे [आकर्षन्ती] अाकर्षण करती है. अर्थात् खींचती है, और फिर [ इतरेण ] दूसरे पर्यायाथिकनयसे [ श्लथयन्ती ] शिथिल करती है सो [ जैनी नीति ] जैनियोंकी न्यायपद्धति [ जयति ] जयवंती है। १-सकलविषयविरतात्मा इत्यपिपाठः ( सम्पूर्ण विषयोंसे विरक्त, ऐसा भी पाठ है।) २-जो कुछ करना था सो कर चुके, अवशेष कर्तव्य कुछ नहीं। ३-संसारमें जो चक्रवर्ती, धरणेन्द्र, अहमिन्द्रादि परस्पर बहुत सुखी हैं सो विषयानन्दकी अपेक्षासे हैं, परन्तु मुक्तात्मा प्रतीन्द्रिय ज्ञानानन्दसे सुखी है। ४-पक्षमें-शिथिल करती है। ५-"अन्त" शब्द पक्ष, सीमा, प्रान्त, अवसान मादि अनेक अर्थवाची है।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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