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थे। उनके जीवन में पद पद पर सच्ची धार्मिकता प्रत्यक्ष दिखाई देती थी । वे २१ वर्ष की उम्र में व्यापारार्थ ववाणिया से बम्बई आए। वहां सेठ रेवाशंकर जगजीवनदासकी दुकान में भागीदार रहकर जवाहरातका धन्धा करते रहे । वे व्यापारमें अत्यन्त कुशल थे । ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका इनमें यथार्थ समन्वय देखा जाता था । व्यापार करते हुये भी श्रीमद्जीका लक्ष्य श्रात्माकी और अधिक था । इनके ही कारण उस समय मोतियोंके बाजार में श्रीयुत रेवाशंकर जगजीवनदासकी पेढ़ी नामी पोढ़ियों में एक गिनी जाती थी । स्वयं श्रीमद्जीके भागीदार श्रीयुत माणिकलाल घेलाभाईको इनकी व्यवहारकुशलता के लिये अपूर्व बहुमान था । उन्होंने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि "श्रीमद् राजचन्द्रके साथ लगभग १५ वर्ष तक परिचय रहा, और उसमें सात-आठ वर्ष तो मेरा उनके साथ प्रत्यन्त परिचय रहा था । लोगों में प्रति परिचयसे परस्परका महत्त्व कम हो जाता है, परन्तु मैं कहता हूं कि उनकी दशा ऐसी आत्ममय थी कि उनके प्रति मेरा श्रद्धाभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया । व्यापार में अनेक प्रकारकी कठिनाइयां प्राती थीं, उनके सामने श्रीमद्जी एक अडोल पर्वत के समान टिके रहते थे। मैंने उन्हें जड़ वस्तुग्रोंकी चिन्तासे चिन्तातुर नहीं देखा । वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे । किसी विषय में मतभेद होने पर भी हृदय में वैमनस्य नहीं था । सदैव पूर्वसा व्यवहार करते थे ।"
श्रीमद्जी व्यापार में जैसे निष्णात थे उससे प्रत्यन्त अधिक प्रात्मतत्त्व में निष्णात थे । उनकी प्रन्तरात्मा में भौतिक पदार्थोंकी महत्ता नहीं थी । वे जानते थे - धन पार्थिव शरीरका साधन है, परलोक अनुयायी तथा आत्माको शाश्वत शान्ति प्रदान करनेवाला नहीं है व्यापार करते हुए भी उनकी अन्तरात्मामें वैराग्य-गंगाका प्रखण्ड प्रवाह निरन्तर बहता रहता था । मनुष्य-भव के एक एक समयको वे अमूल्य समझते थे । व्यापारसे अवकाश मिलते ही वे कोई अपूर्व आत्मविचारणा में लीन हो जाते थे । निवृत्तिकी पूर्ण भावना होने पर भी पूर्वोदय कुछ ऐसा विचित्र था जिससे उनको बाह्य उपाधि में रहना पड़ा ।
श्रीमद्जी जवाहरात के साथ साथ मोतियोंका भी व्यापार करते थे । व्यापारी समाज में वे अत्यन्त विश्वासपात्र समझे जाते थे । उस समय एक प्रारब अपने भाई के साथ रहकर बम्बई में मोतियोंकी श्राइतका धन्धा करता था। छोटे भाईके मन में आया कि आज मैं भी बड़ े भाईके समान कुछ व्यापार करू । परदेशसे आया हुआ माल साथमें लेकर आरब बेचने निकल पड़ा । दलालने श्रीमद्जीका परिचय कराया। श्रीमद्जीने प्रारबसे कहा - भाई ! सोच समझकर भाव कहना । प्रारब बोला - जो मैं कह रहा हूं, वही बाजार भाव है, प्राप माल खरीद करें ।
श्रीमद्जीने माल ले लिया, तथा उसको एक तरफ रख दिया। वे जानते थे कि इसको नुकसान है और हमें फायदा । परन्तु वे किसीकी भूलका लाभ नहीं लेना चाहते थे । प्रारब घर पहुंचा, बड़े भाई सौदा की बात की। वह घबरा कर बोला- तूने यह क्या किया ? इसमें तो प्रपने को बहुत नुकसान है। अब क्या था, प्रारब श्रीमद्जी के पास प्राया और सौदा रद्द करने को कहा । व्यापारिक