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नियमानुसार सौदा तय हो चुका था, प्रारब वापस लेने का अधिकारी नहीं था, फिर भी श्रीमद्जीने सौदा रद्द करके मोती उसे वापिस दे दिए। श्रीमद्जीको इस सौदे से हजारों का फायदा था, तो भी उन्होंने उसकी अन्तरात्माको दुःखित करना अनुचित समझा और मोती लौटा दिए। कितनी निस्पृहता-लोभवृत्तिका अभाव ! आज के व्यापारियों में यदि सत्यता पाजाय तो सरकार को नित्य नये नये नियम बनानेकी जरूरत ही न रहे और मनुष्य-समाज सुखपूर्वक जीवन यापन कर सके।
श्रीमद्जी की दृष्टि बड़ी विशाल थी। आज भी भिन्न भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनों का रुचि सहित आदरपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं। उन्हें बाडाबन्दी पसन्द नहीं थी। वे कहा करते थे कि कुगुरुमों ने लोगोंकी मनुष्यता लूट ली है, विपरीत मार्ग में रुचि उत्पन्न करदी है, सत्य समझाने की अपेक्षा कुगुरु अपनी मान्यता को ही समझाने का विशेष प्रयत्न करते हैं। . श्रीमद्जीने धर्मको स्वभावकी सिद्धि करनेवाला कहा है। धर्मों में जो भिन्नता देखी जाती है, उसका कारण दृष्टिकी भिन्नता बतलाया है। इसी बातको वे स्वयं दोहे में प्रकट करते हैं:
भित्र भिन्न मत देखिए, भेद दृष्टिनो एह एक तत्त्वना मूलमां, व्याप्या मानो तेह ।। तेह तत्त्वरुप वृक्षनु, आत्मधर्म छे मूल । स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म ते ज अनुकूल ।।
अर्थात्-भिन्न भिन्न जो मत देखे जाते हैं, वह सब दृष्टि का भेद है। सब ही मत एक तत्त्व के मूल में व्याप्त हो रहे हैं । उस तत्त्वरूप वृक्षका मूल है आत्मधर्म, जो कि स्वभावकी सिद्धि करता है, और वही धर्म प्राणियों के अनुकूल है।
श्रीमद्जीने इस युगको एक अलौकिक दृष्टि प्रदान की है। वे रूढ़ि या अन्धश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे। उन्होंने पाडम्बरोंमें धर्म नहीं माना था। वे मत-मतान्तर तथा कदाग्रहादिसे बहुत ही दूर रहते थे। वीतरागताकी ओर ही उनका लक्ष्य था।
पेढ़ी से अवकाश लेकर वे अमुक समय तक खंभात, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसी और ईडरके पर्वत में एकान्तवास किया करते थे। मुमुक्षुत्रोंको प्रात्मकल्याणका सच्चा मार्ग बताते थे। इनके एक एक पत्र में कोई अपूर्व रस भरा हुआ है। उन पत्रोंका मर्म समझनेके लिए सन्त-समागम की विशेष आवश्यकता अपेक्षित है। ज्यों ज्यों इनके लेखोंका शान्त और एकाग्र चित्त से मनन किया जाता है, त्यों त्यों आत्मा क्षणभरके लिए एक अपूर्व प्रानन्दका अनुभव करता है। 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थके पत्रोंमें उनका पारमार्थिक जीवन नहां तहां दृष्टिगोचर होता है।
श्रीमद्जीकी भारत में अच्छी प्रसिद्धि हुई। मुमुक्षोंने उन्हें अपना मार्ग-दर्शक माना। बम्बई रहकर भी वे पत्रों द्वारा मुमुक्षुत्रोंकी शंकामोंका समाधान करते रहते थे। प्रातः स्मरणीय श्री लघराज स्वामी इनके शिष्यों में मुख्य थे। श्रीमद्जी द्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञान का संसार में प्रचार