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श्रीमद् राजचन्द्रजैन शास्त्रमालायाम्
[ मंगलाचरण सूत्रावतारः आर्याछन्दाः-तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः ।
दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥ १ ॥ अन्वयाथों-[ यत्र ] जिसमें [ दर्परखनल इव ] दर्पणके पृष्ठभागके समान [ सकला ] सम्पूर्ण [ पदार्थमालिका ] पदार्थोंका समूह [ समस्तैरनन्तपर्यायः समं [ अतीत, अनागत, वर्तमानकालकी समस्त अनन्त पर्यायोसहित [ प्रतिफलति ] प्रतिबिम्बित होता है, [ तत् ] वह [ परंज्योतिः ] सर्वोत्कृष्ट शुद्धचेतना स्वरूपी प्रकाश [ जयति ] जयवन्त होप्रो।
भावार्थ-शुद्ध चेतना प्रकाशकी कोई ऐसी ही महिमा है कि उसमें सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने आकारसे प्रतिभासित होते हैं, और फिर उन पदार्थोंके जितने भूत भविष्यत् वर्तमान पर्याय हैं, वे भी प्रतिबिम्बित होते हैं, जैसे पारसोके पृष्ठभागमें घट पटादिक पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं ।
__ पारसीके दृष्टान्तमें विशेषता है। पारसीके कुछ ऐसी अभिलाषा नहीं है कि मैं इन पदार्थोको प्रतिबिम्बित करूं, और पारसी उस लोहेकी सुईके समान जो कि चुम्बक पाषाणके समीप स्वयमेव जाती है, अपने स्वरूपको छोड़ उनके प्रतिबिम्बित करनेको पदार्थों के समीप नहीं जाती, तथा वे पदार्थ भी अपने स्वरूपको छोड़कर उस पारसीमें प्रवेश नहीं करते, तथा वे पदार्थ प्रापको प्रतिबिम्बित करने के लिये साभिप्रायी (गरजी) पुरुषके सदृश प्रार्थना भी नहीं करते। सहज ही ऐसा सम्बन्ध है कि जैसा उन पदार्थों का आकार है वैसे ही आकाररूप होकर पारसीमें प्रतिबिम्बित होते हैं। प्रतिबिम्बित होनेपर पारसी ऐसा नहीं मानती है कि “यह पदार्थ मुझको भला है, उपकारी है, राग करने योग्य है, अथवा बुरा है, अपकारी है, द्वेष करने योग्य है" किन्तु सर्व पदार्थों में साम्यभाव पाया जाता है। जैसे कितने एक घट पटादि पदार्थ पारसोमें प्रतिबिम्बित होते हैं, वैसे ही ज्ञानरूपी पारसी (दर्पण ) में समस्त जीवादिक पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं । ऐसा कोई द्रव्य व पर्याय नहीं जो ज्ञानमें न आया हो। अतः शुद्ध चैतन्य पदार्थकी सर्वोत्कृष्ट महिमा स्तुति करने योग्य है। यदि यहाँ पर कोई प्रश्न करे कि मंगलाचरणमें गुणीका स्तवन नहीं करके केवल गुणका स्तवन क्यों किया ? तो इसका उत्तर यह है कि उक्त मंगलमें प्राचार्य महाराजने अपनी परीक्षाप्रधानता व्यक्त की है। क्योंकि भक्त पुरुष प्राज्ञाप्रधानी और परीक्षाप्रधानी ऐसे दो भेदरूप होते हैं। इनमेंसे जो पुरुष परम्परा मार्गसे देव गुरुके उपदेशको ज्यों त्यों प्रमाण कर विनयादि क्रियारूप प्रवृत्ति करता है, उसे प्राज्ञाप्रधानी कहते हैं; और जो प्रथम अपने सम्यग्ज्ञानद्वारा स्तुति करने योग्य गुणोंका निश्चयकर पश्चात् बहुगुणी जानकर श्रद्धा करता है, उसे परीक्षाप्रधानी कहते हैं। क्योंकि ऐसा शास्त्रकारोंने कहा है "मुरणाः पूजास्थानं गुरिणषु न च लिङ्गन च वयः" अर्थात् कोई स्थान, वृद्धावस्था अथवा वेष पूज्य नहीं है, गुण ही पूज्य हैं । इस प्रकरणमें 'शुद्ध चैतन्यप्रकाशरूप गुण स्तुत्य है' ग्रन्थकर्ता प्राचार्यने यही प्रकट किया है। इस बातको सब ही स्वीकार करेंगे कि जिस पदार्थ विशेषमें उपयुक्त असाधारण गुण प्राप्त होवें वह सहज ही स्तुत्य होता है। क्योंकि गुण गुणी ( पदार्थ ) के ही आश्रित रह सकता है, पृथक् नहीं रह सकता; और किंचित् विचार करनेसे उक्त शुद्ध चैतन्य प्रकाश गुण अरहंत और सिद्धोंमें नियमसे निश्चित होता है।