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श्रीमद् राजचन्द्रजैन शास्त्रमालायाम् [१-सम्यक्त्वके पाठ अंग तो प्रभाव है परन्तु अतिव्याप्तिदूषण अवश्य आता है; क्योंकि द्रव्यलिंगी मुनि जिनप्रणीत तत्त्वोंको ही मानते हैं, अन्यमत कल्पित तत्त्वोंको नहीं मानते । लक्षण ऐसा कहना चाहिये "जो लक्ष्यके बिना अन्य स्थानपर न पाया जावे" इसका समाधान इस प्रकार है कि:
द्रव्यलिंगी मुनि जिनप्रणीत तत्त्वोंको ही मानते हैं परन्तु विपरीताभिनिवेशसंयुक्त शरीराश्रित क्रियाकांडको अपना जानते हैं, ( यहाँ अजीव तत्त्वमें जीवत्व श्रद्धान हुआ ) और प्रास्रव बंध रूप शील संयमादि परिणामोंको संवर निर्जरारूप मानते हैं। वे यद्यपि पापसे विरक्त हुए हैं, परन्तु पुण्यमें उपादेय बुद्धि रखते हैं, अतएव उनके तत्त्वार्थका यथार्थ श्रद्धान नहीं हुआ।
.. सम्यक्त्वके पाठ अंगोंका वर्णन ।
१. निःशङ्कित सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलजैः ।
किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शङ्कति कर्त्तव्या ॥२३॥ अन्वयायौं -[अखिलजः] सर्वज्ञदेवद्वारा [उक्तं] कहा हुआ [इदम्] यह [सकलम्] सारा [वस्तुजातम्] वस्तुसमूह [अनेकान्तात्मकम्] अनेक स्वभावरूप [उक्तं] कहा गया है सो [किमु सत्यम्] क्या सत्य है ? [वा असत्यं] या झूठ है ? [इति] ऐसी [शंका] शंका [जातु] कदाचित् भी [न] नहीं [कर्सव्या करनी चाहिये।
भावार्थ-जिनप्रणीत पदार्थों में सन्देह नहीं करना चाहिये, क्योंकि जिनभगवान् अन्यथावादो नहीं होते, इसको निःशङ्कित अंग कहते हैं।
- २. निःकाङ्कित - - - इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्त्वकेशवत्वादीन् ।
एकान्तवाददूषितपरसमयानपि च नाकाङ क्षेत् ॥२४॥ अन्वयाथों-[इह] इस [जन्मनि] लोकमें [विभवादीनि] ऐश्वर्य सम्पदा आदिको [अमुत्र] परलोकमें [ चक्रित्त्वकेशवत्त्वादीन् ] चक्रवर्ती नारायणादि पदोंको [ 1 ] और [ एकान्तवाददूषितपरसमयान् [ एकान्तवादसे दूषित अन्य धर्मोको [अपि] भी [न] नहीं [आकाक्षेत्] चाहे ।
भावार्थ-सम्यक्त्वधारी जीव इसलोकसम्बन्धी पुण्यके फलोंको आकांक्षा नहीं करता है और न परलोकसम्बन्धी वैभव चाहता है। क्योंकि, वह पुण्यके फलरूप इन्द्रियोंके विषयोंको आकुलताके निमित्त से दुःखरूप ही जानता है, इसको निःकांक्षित अर्थात् वाञ्छा रहित अंग कहते हैं।
१-इदमेवेशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा। इत्यकम्पायसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥११॥ -(स्वामी समंतभद्राचार्यकृत रत्नकरंडश्रावकाचार ) अर्थात्-तत्त्व यही हैं, ऐसे ही हैं, अन्य नहीं हैं, अथवा और प्रकार नहीं हैं, ऐसी निष्कम्प खड्गधारके पानीके समान सन्मार्गमें संशय रहित रुचि या विश्वास होनेको निश्शंकित अंग कहते हैं। २-कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षा स्मृता ॥१२॥ (र० क०)
यहां कांक्षाका अर्थ वांछा अथवा चाह है। चाह किसकी? विषयोंकी, विषय-साधनोंकी। अर्थात्-कर्मके अधीन, अंतसहित, उदयमें दुःखमिश्रित और पापके बीजरूप सुखमें अनित्यताका श्रद्धान होना निःकांक्षित अंग है ।