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________________ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ ५-तीनगुप्ति, पांच समिति अन्वयायौं -[ सम्यग्गमनागमनं ] सावधान होकर भले प्रकार गमन पौर प्रागमन, [सम्यग्भाषा ] उत्तम हितमितरूप वचन, [सम्यक् एषणा] योग्य आहारका ग्रहण, [सम्यग्ग्रहनिक्षेपौ] पदार्थका यत्नपूर्वक ग्रहण और यत्नकपूर्वक क्षेपण अर्थात् धरना [ तथा ] और [सम्यग्व्युत्सर्गः] प्रासुक भूमि देखकर मल मूत्रादिक त्यागना [ इति ] इस प्रकार ये पांच [ समिति ] समिति हैं। भावार्थ-प्राण-पीड़ा-परिहार करनेमें पाँच समिति उत्तम उपाय हैं। इनके ईर्यासमिति, भाषांसमिति, एषणासमिति, पादाननिक्षेपणसमिति प्रौर उत्सर्गसमिति ये पाँच प्रचलित नाम हैं। श्लोक में इन्हीं मामोंके वाचक अन्य शब्द दिये गये हैं। मुनी और श्रावक दोनोंको इनकी पालना यथोचित करनी चाहिये। धर्म' सेव्यः क्षान्तिद्दुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् । पाकिञ्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ॥२०॥ अन्वयाथी -[क्षान्तिः ] क्षमा, [ मृदुत्वम् ] मृदुपना अर्थात् मार्दव, [ ऋजुता] सरलपना अर्थात् प्रार्जव, [ शौचम् ] शौच, [ प्रथ ] पश्चात् [ सत्यम् ] सत्य, [च ] तथा [प्राकिञ्चन्यं ] प्राकिंचन, [ ब्रह्म ] ब्रह्मचर्य, [1] पौर [ त्यागः ] त्याग, [च ] मोर [ तपः ] तप, [च ] और [ संयमः ] संयम [ इति ] इस प्रकार [ धर्मः ] दस प्रकारका धर्म [ सेव्यः ] सेवा करने के योग्य है। भावार्थ-क्रोध कषायके कारण परिणामोंके कलुषित न होने देनेको क्षमा, जात्यादि अष्ट मदके न करनेको मार्दव, मनोवचनकायकी क्रियानों के वक्र न रखनेको तथा कपटके त्यागको प्रार्जव, अंत:करणमें लोभ गृद्धताके न्यून करनेको तथा बाह्य शरीरादिक में पवित्रता रखनेको शौच, यथार्थ वचन कहनेको सत्य, परिग्रहके अभावको तथा शरीरादिकमें ममत्व न रखनेको प्राकिंचन, कर्मक्षय करनेके लिये अनशनादि करनेको तथा इच्छाके निरोध करनेको तप, दूसरे जीवोंको दयाभाव करके ज्ञान माहारादि दान देनेको त्याग, इन्द्रियनिरोधन तथा त्रस स्थावर जीवोंकी रक्षाको संयम, और प्रात्मामें तल्लीन रहने तथा स्त्री-संभोगके त्याग करनेको ब्रह्मचर्य, कहते हैं। ये देशों धर्म अपनी पपनी योग्यतानुसार मुनि और श्रावक दोनोंको धारण करना चाहि ।। प्रध्र वमशरणमेकत्वमन्यताऽशौचमाञवो जन्म । : लोकवृषबोधिसंवरनिर्जराः सततमनुप्रेक्ष्याः ।।२०५॥ अन्वयाथों [प्रध्र वम् ] अध्र व [ अशरणम् ] अशरण, [ एकत्वम् ] एकत्व, [अन्यता पन्यत्व, .[ अशौचम् ] अशुचि, [प्रास्रवः ] आस्रव, [जन्म ] संसार, [लोकवृषबोधिसंवर. निर्जराः ] लोक, धर्म, बोधिदुर्लभ, संवर और निर्जरा । एता द्वादशभावना ) ये बारह भावनायें [ सततम् ] निरन्तर [ अनुप्रेक्ष्याः ] बार बार चिन्तवन तथा मनन करना चाहिये। ___ भावार्थ-मुमुक्ष (मोक्षाभिलाषी) जनोंको उपयुक्त बारह भावनायें अथवा द्वादशानुप्रेक्षापोंका चिन्तवन निरन्तर करना चाहिये । ये भावनायं परम (उत्कृष्ट) वैराग्यको प्राप्त करनेवाली हैं । अनुप्रेक्षा १-उत्तमक्षणमार्दवानबसत्यशौचसंयमतपस्त्यानाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ( त० म०६, सू० ६) ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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