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________________ लोक १६-२.३) पुरुषार्थसिद्धय पायः । जिनपुङ्गवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् । सुनिरूप्य निजां पदवों शक्ति च निषेव्यमेतदपि ॥२०॥... अन्वयाथों-[ जिनपुङ्गवप्रवचने ] जिनेश्वरके सिद्धान्तमें [ मुनीश्वराणां ] मुनीश्वर अर्थात् सकलव्रतियोंका [ यत् ] जो [ माचरणम् ] पाचरण । उक्तम् ] कहा है, सो [ एतत् ] यह [अपि] भी गृहस्थोंको [ निजां ] अपनी [ पदवीं ] पदवी [च [ और [ शक्ति ] शक्तिको [ सुनिरूपब ] भले प्रकार विचार करके [ निषेव्यम् ] सेवन करने योग्य कहा है। भावार्थ-इस ग्रन्थमें मुख्यतासे गृहस्थाचारका वर्णन किया गया है, और जो थोड़ा बहुत यतियोंका आचरण वर्णन किया है, वह गृहस्थाचारके प्रयोजनसे ही किया है, इसलिये गृहस्थोंको चाहिये कि अपनी योग्यता और शक्तिका विचार करके उसका ग्रहण करें, क्योंकि मुनीश्वरोंकी संयमादि क्रिया एकोदेश अर्थात् कुछ अंशोंमें गृहस्थपदमें भी कर्तव्य है, सर्वदेश केशलुचनादि क्रियायें मुनीश्वरपदके ही योग्य हैं, गृहस्थोंके नहीं। इदमावश्यकषट्कं समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम् । प्रत्याख्यान वषुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्त्तव्यम् ॥२०१॥ अन्वयाथों-[ समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम्] समता, स्तव, वन्दना प्रतिक्रमण [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [च ] और [ वपुषो व्युत्सर्गः ] कायोत्सर्ग [ इति ] इस प्रकार [ इदम् ] ये [ आवश्यकषट्क ] छह आवश्यक [ कर्तव्यम् ] करना चाहिये। भावार्थ-सम्यक भावोंके करनेको समता, तीर्थकरोंके गुणोंके कीर्तनको स्तव. उनके सम्मुख गिरादि अङ्गोंके नम्रीभूत करनेको बन्दना, प्रमादकृत पूर्वदोषोंके दूर करनेको प्रतिक्रमण, त्यागभावोंसे आगामीकालसम्बन्धी प्रास्रवक रोकनेको प्रत्याख्यान, और कायके त्याग करने अर्थात् पाषाणकी मूर्तिके समान निष्कम्प अचल होकर सामायिक में स्थित होनेको कायोत्सर्ग कहते हैं। ये छह क्रियायें पावककी अत्यन्त आवश्यक हैं, इसीसे इनका नाम षट् अावश्यक क्रिया है। सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य । मनसः सम्यग्दण्डो गुप्तीनां त्रितयमवगम्यम् ॥२०२॥ अन्वयार्थी-[ वपुषः ] शरीरका [ सम्यग्दण्डः ] भले प्रकार अर्थात् शास्त्रोक्त विधिसे वश करना [ तथा ] तथा [ वचतस्य ] वचनका [ सम्यग्दण्डः ] भले प्रकार अवरोधन करना [च ] पौर [ मनस: ] मनका [ सम्यग्दण्ड: ] सम्यक्तया निरोधन करना इस प्रकार [ गुप्तीनां त्रितयम् ] गुप्तियोंके त्रिकको अर्थात् तीन गुप्तियोंको [अवगम्यम् ] जानना चाहिये। भावार्थ- ख्याति लाभ पूजांदिकी वांछाके बिना मनोवचनकायकी' स्वेछापोंके रोक लेनेको गुप्ति कहते हैं। इन्हें साधारणतः मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति कहते हैं । सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथैषणा सम्यक । सम्यग्ग्रहनिक्षेपो व्युत्सर्गः सम्यगिति समितिः ॥२०३।। १-सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः (त०म०६, सू०४)। २-ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितमः ( त० अ०६, सू०५)।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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