________________
श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ ५-सकलचारित्र व्याख्यान प्रकारसे अमुक हार मिलेगा, तो भोजन करूँगा अन्यथा नहीं,” इस प्रकार प्रवृत्तिकी मर्यादा करने को वृत्त: संख्या अथवा वृत्तिपरिसंख्या कहते हैं ।
प्रथम तपसे रागादिक जीते जाते हैं, कर्मोंका क्षय होता है, घ्यानादिककी सिद्धि होती है, दूसरे निद्रा नहीं प्राती, दोष घटते हैं, सन्तोष स्वाध्यायकी प्राप्ति होती है, तीसरेसे किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित नहीं होती, ब्रह्मचर्य का पालन होता है, ध्यानाध्ययनकी सिद्धि होती है, चौथेसे इन्द्रियों का दमन होता है, निद्रा प्रालस्यका शमन होता है, स्वाध्याय-सुखकी सिद्धि होती है, पाँचवेंसे सुखकी अभिलाषा कृश होती है, रागका प्रभाव होता है, कष्ट सहन करनेका अभ्यास होता है, प्रभावनाकी वृद्धि होती है, और छट्ट तपसे तृष्णाका विनाश होता है ।
* विनयो' वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः । स्वाध्यायोse ध्यानं भवति निषेव्यं तपोऽन्तरङ्गमिति ॥ १६६ ॥
श्रन्वयार्थी - [ विनयः ] विनय, [ वैयावृत्यं ] वैयावृत्य, [ प्रायश्चित्त] प्रायश्चित्त [तथैव च ] और तैसे ही [ उत्सर्गः ] उत्सर्ग, [ स्वाध्यायः ] स्वाध्याय, [ श्रय ] पश्चात् [ ध्यानं ] ध्यान, [ इति ] इस प्रकार [ अन्तरङ्गम् ] अन्तरङ्ग [ तपः ] तप [ निषेध्यं ] सेवन करने योग्य [ भवति ] है ।
मावार्थ - अन्तरङ्ग तपके छह भेद हैं, जिनमें श्रादरभावको विनय कहते हैं। यह विनय दो प्रकारका है - १ मुख्यविनय २ उपचार विनय । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको पूज्यबुद्धिसे आदरपूर्वक धारण करना यह मुख्यविनय है, और इनके धारण करनेवाले प्राचार्यादिकोंको श्रादरपूर्वक नमस्कारादि करना यह उपचार विनय है। इन प्राचार्यादिकोंकी भक्तिके वश परोक्षरूप में उनके तीर्थ क्षेत्रादिकों की वन्दना करना यह भी उपचार विनयका भेद है। पूज्य पुरुषोंकी सेवा चाकरी करनेको वैय्यावृत्य कहते हैं । उसके भी दो भेद हैं- एक कायचेष्टाजन्य जैसे हाथसे पदसेवन करना दूसरां परवस्तुजन्य जैसे भोजनके साथमें श्रौषधादिक देकर साधुत्रोंको रोग पीड़ासे मुक्त करना, प्रमादसे उत्पन्न हुए दोषों को प्रतिक्रमणादि पाठ अथवा तप व्रतादि अङ्गीकार करके दूर करनेको प्रायश्चित्त कहते हैं, धन धान्यादिक बाह्य तथा क्रोध मानादि अन्तरङ्ग परिग्रहों में अहंकार ममकाररूप बुद्धिके त्याग करनेको उत्सर्ग कहते हैं | ज्ञानभावनाके लिये श्रालस्य रहित होकर श्रद्धानपूर्वक जैन सिद्धान्तोंका स्वतः पढ़ना, बारम्बार अभ्यास करना, धर्मोपदेश देना, और दूसरोंसे सुनना, इसे स्वाध्याय कहते हैं, और समस्त चिन्ताओंका त्यागकर धर्ममें तथा म्रात्मचिन्तवन में एकाग्र होने को ध्यान कहते हैं ।
प्रथम अन्तरङ्ग तपसे मानकषायका विनाश होकर ज्ञानादि गुणोंकी प्राप्ति होती है, दूसरे मे गुणानुराग प्रकट होकर मानका प्रभाव होता है, तीसरेसे व्रतादिकों की शुद्धता होकर परिणाम निःशल्य हो जाते हैं, तथा मानादिक कषाय कृश होते हैं, चौथेसे निष्परिग्रहत्व प्रकट होकर मोह क्षीण होता है, पाँचवें बुद्धि स्फुरायमान होकर परिणाम उज्ज्वल रहते हैं, सवेग होता है, धर्मकी वृद्धि होती है, और छट्ट से मन वशीभूत होकर अनाकुलताकी प्राप्तिसे परम प्रानन्दमें मग्न हो जाता है।
१ --प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ( त० अ० सू० २० ) ।