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________________ श्लोक १९५-१६८ ] पुख्खार्थसिद्धय पायः । ५-सकलचारित्रव्याख्यान । चारित्रान्तर्भावात् तपोपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् । अनिहितनिजवीर्यस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तः ॥१६॥ अन्वयाथों - [प्रागमे ] जैनागममें [ चारित्रान्तर्भावात् ] चारित्रके अन्तर्वर्ती होनेसे [ तपः ] तप [ अपि ] भी [ मोक्षाङ्गम् ] मोक्षका अङ्ग [ गदितम् ] कहा गया है, इसलिये [ अनिगूहितनिजवीर्यः ] अपने पराक्रमको नहीं छिपानेवाले तथा [ समाहितस्वान्तः ] सावधान चित्तवाले पुरुषोंके द्वारा [ तदपि ] वह तप भी [ निषेव्यं ] सेवन करने योग्य है । भावार्थ- दर्शन, ज्ञान, और चारित्ररूप मोक्षमार्ग बतलाया गया है, और तप यह एक चरित्रका भेद विशेष है, इस कारण यह तप भी मोक्षका एक अङ्ग ठहरा, और इसी कारण शक्तिवान् सावधान पुरुषोंके सेवन करने योग्य है। तपश्चरण करने के लिये दो बातोकी पावश्यकता है, एक तो अपनी शक्ति और दूसरा वशोभूत मन, क्योंकि जो पुरुष अपनी शक्तिको छपाता है और कहता है कि मुझसे तप नहीं होता, उसका तप अङ्गीकार करना असंभव है और जो मन वशीभूत न होवे, तो तप अङ्गीकार - करके भी इच्छा बनी रहेगी और इससे जहाँ इच्छा है, वहाँ तप नहीं है, क्योंकि "इच्छ। मिरोधस्तपः" यह तपका लक्षण है अनशनमवमौदर्य विविक्तशय्यासनं रसत्यागः । कायक्लेशो वृत्तेः सङ्ख्या च निषेव्यमिति तपो बाह्यम् ॥१६॥ अन्वयाथों-[ अनशनम् ] अनशन, [ अवमौदर्य ] ऊनोदर, [ निविक्तशय्यासनं ] विविक्तशय्यासन, [ रसत्यागः] रसपरित्याग, [ कायक्लेशः ] कायक्लेश [च ] और [वृत्त: संख्या वृत्तिकी संख्या [ इति ] इस प्रकार [ बाह्य तपः ] बाह्य तप [ निषेव्यम् ] सेवन करने योग्य है। ___ भावार्थ-तप दो प्रकारका है. एक बाह्यतप दूसरा अन्तरंगतप । जो नित्य नैमितिक क्रिया में । इच्छाके निरोधसे साधन किया जावे, और बाहिरसे दूसरेको प्रत्यक्ष प्रतिभासित होवे उसे बाह्यतप और . जो अन्तरंग मनके निग्रहसे साधा जावे और दूसरोंकी दृष्टि में न आ सके, उसे अन्तरंगतप कहते हैं। : प्रथम बाह्यतपके छह भेद हैं, जिनमें खाद्य, स्वाद्य,लेह्य', पेय' रूप चार प्रकारके प्राहारके त्याग करनेको अनशन, भूखसे कम पाहार करनेको अवमोदय अथवा ऊनोदर, विषयी जीवों के सञ्चार रहित स्थान में सोने बैठनेको विविक्तशय्यासन, दुग्ध, दही, घृत, तेल, मिष्टान्न, लवण इन छह रसों के त्याग . करनेको रसपरिश्याम, शरीरको परीषह उत्पन्न करके पीड़ाके सहन करनेको कायक्लेश' और "अमुक ... १-अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः (त०प्र०६,सू०१६) २-उदर भरने के लिये हायसे खाने योग्य पदार्थ। -स्वादमात्र ताम्बूलादिक । ४-चाटनेके योग्य प्रवलेह आदिक। ५-पीने योग्य दुग्धादिक । ६-कायक्लेश और परीषहमें इतना भेद है, कि प्रयत्नपूर्वक कष्ट उपस्थित करके सहन । करने को तो कायक्लेश कहते हैं, मौर स्वयं अकस्मात् पाये हए कष्टोंके सहन करनेको परीषह कहते हैं ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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