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________________ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ ४-उपवास, भोगोपभोग, प्रतिथिसंविभागके प्रतीचार । निक्षेप और सचित्तपिधान, [ कालस्यातिक्रमणं ] कालका अतिक्रम, [च ] और [ मात्सर्य ] मात्सर्य, [इति ] इस प्रकार [ अतिथिदाने ) अतिथिसंविभाग व्रतके पांच प्रतीचार होते हैं। भावार्थ-किसी कार्यके वश बहाना बनाकर दूसरेसे दान देने के लिये कह जानेको पदातृव्यपदेश, कमल पत्रादि सचित्त वस्तुओं में प्राहार रखनेको सचित्तनिक्षेप, सचित्त कमलादिक पत्रासे प्राहार ढकनेको सचित्तपिधान, अतिथिके प्राहारका समय भूल जानेको कालातिक्रम और दातामोंसे ईर्षा : करनेको अथवा उनकी प्रशंसा न सह सकनेको मात्सर्य कहते हैं । जोवितमरणाशंसे' सुहृदनुरागः सुखानुबन्धश्च । सनिदानः पञ्चंते भवन्ति सल्लेखनाकाले ।।१६५।। अन्वयार्थी-[ जीवितमरणाशंसे ] जीविताशंसा, मरणाशंसा, [ सुहृदनुरागः ] सुहृदनुराग, [सुखानुबन्धः ] सुखानुबन्ध [च ] और [ सनिदानः ] निदानसहित [ एते ] ये [ पञ्च ] पांच प्रतीचार [ सल्लेखनाकाले ] समाधिमरणके समयमें [ भवन्ति ] होते हैं। भावार्थ-प्रसार शरीरकी स्थिति में प्रादरवान् होके जीनेकी इच्छा करनेको जीविताशसा, रोगादिककी पीड़ाके भय से शीघ्र ही मरनेकी इच्छा करनेको मरणाशंसा, पूर्व में मित्रोंके साथ की हुई प्रानन्ददायिनी क्रीड़ाके स्मरण करनेको सुहृदनुराग, पूर्वकृत नाना प्रकारके भोगोपभोग स्त्री सुखादिकों के चिन्तवन करनेको सुखानुबन्ध और भविष्यकालके भोगोंके वांछारूप चिन्तवनको निदान कहते हैं । इत्येतानतिचारानपरानपि संप्रतक्यं परिवज्यं । सम्यक्त्वव्रतशोलेरमलैः पुरुषार्थसिद्धिमेत्यांचरात् ।।१६६।। अन्वयायौं - [इति ] इस प्रकार गृहस्थ [ एतान् ] इन पूर्व में कहे हुए [अतिचारान्] अतीचारोंको और [अपरान्] दूसरोंको अर्थात् अन्य दूषणोंके लगानेवाले अतिक्रम व्यतिक्रमादिकोंको [अपि भी [ संप्रतक्यं ] विचार कर. [ परिवर्य ] छोड़ करके, [ अमलैः ] निर्मल [ सम्यक्त्वयतशीलः ] सम्यक्त्व, व्रत और शीलों द्वारा [ अचिरात् ] थोड़े ही समय में [ पुरुषार्थसिद्धिम् ] पुरुषके प्रयोजनकी सिद्धिको [ एति ] प्राप्त होता है । भावार्थ-प्रतीचारोंके परिहारसे सम्यकत्व व्रत और शील शुद्ध होते हैं, और फिर उनके शुद्ध होनेपर आत्मा शीघ्र ही अपने इष्ट पदको प्राप्त होता है। इति देशचारित्रकथनम् । 1ोता . १-जीवितरमरणाशंसामित्रानुरागसुखनुबन्धनिदानानि ( त० प्र०७ सू०.३७)।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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