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________________ श्रीमद् सनचन्द्रजामशास्त्रमालायाम [ ४-सहलेखना मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि। इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥१७६। अन्वयार्थी-[ अहं ] मैं [ मरणान्ते ] मरणकालमें [ अवश्यम् ] अवश्य ही [ विधिना ] शास्त्रोक्त विधिसे [ सल्लेखनां ] समाधिमरण [ करिष्यामि ] करूंगा, [इति ] इस प्रकार [ भावना परिणतः ] भावनारूप परिणति करके [अनागतमपि ] मरणकाल पानेके पहिले ही [ इदं ] यह [ शीलम् ] सल्ले खनाव्रत [ पालयेत् ] पालना चाहिये। भावार्थ-सल्लेखना अर्थात् संन्यासका धारण अन्तकाल में होता है, परन्तु इस जीव की आयु. समय प्रतिसमय घटती ही जाती है, जिसके प्राखिर को मरना निश्चित ही है, इस कारण मृत्यु के पहिले ही ऐसी प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि "मैं मरण समय में अवश्य ही सन्याम धारण करूंगा"। इस प्रतिज्ञा की अपेक्षा से उक्त सल्लेखनाव्रत पहिलेसे ही पालित समझा जावेगा। मरणेऽवश्यं भाविनि कषायसल्लेखनातकरणमात्रे । रागादिमन्तरेण व्याप्रियमारणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥१७७।। अन्वयाथौं -[अवश्य ] अवश्य ही [ भाविति ] होनहार [ मरणे 'सति' ] मरणके होते हुए [ कषायसल्लेखनातनकरणमात्रे ] कषाय सल्लेखनाके कृश करने मात्र व्यापारमें [ व्याप्रियमारणस्य ] प्रवर्तमान पुरुषके [ रागादिमन्तरेण ] रागादिक भावोंके विना [ आत्मघातः] आत्मघात [ नास्ति ] नहीं है। . ।। भावार्थ-शरीर स्वभावके विकाररूप विह्नों से तथा शुभाशुभसूचक निमित्तज्ञानकी शक्तिसे अपना मरणकाल जब निश्चित कर लिया है, तब ही संन्यासमरण अंगीकार किया जाता है और इसलिये " इस समाधि अवस्था में राग द्वोष मोहादिकोंका अभाव होनेसे संन्यास लेने पर आत्मघातका दोष नहीं लग ता। जिस प्रकार कोई बड़ा व्यापारी अपने घर में आग लग जानेसे पहिले तो उसे बुझाने का प्रयत्न करता है; परन्तु जब बुझाना अशक्य समझ लेता है तब वह ऐसी युक्तिको काममें लाता है कि जिससे अपने हुँडी-पत्रीके व्यवहार-वचन में किसी प्रकार बट्टा नहीं लगने पावे । ठीक इसी प्रकार शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर मनुष्य उसे निर्दोष रीतिसे गमन करने के लिये औषाधादिक' सेवन करता है, परन्तु जब व्याधि से मुक्त होना अशक्य समझ लेता है, तब संन्यास धारण करता है; जिससे अपना धर्म न बिगड़ने पावे । भाव यह है कि अन्तकाले निश्चित करके धर्मके रक्षार्थ संन्यास धारण करना आत्मघात नहीं है। यो हि कषाधाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ॥१७॥ अन्वयाथों - [हि] निश्चय करके [ कषायाविष्टः ] क्रोधादि कषायोंसे घिरा हुमा [ यः] जो पुरुष [कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रः] श्वासनिरोध, जल, अग्नि, विष, शस्त्रादिकोंसे अपने [प्रारणान्।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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