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________________ ७३ श्लोक १७२-१७५ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः। और विषादसे रहित तथा [ शिथिलितलोमः] लोभको शिथिल करनेवाला [ त्यागः ] दान [ अहिंसा एवं ] अहिंसा स्वरूप ही [ भवति ] होता है । भावार्थ - जो वस्तु अपने प्रयोजनसे बनाई जाती है, वह यदि दूसरे को देना पड़े तो उससे अप्रीति, खिन्नता और लोभ उत्पन्न होता है, अतएव यहाँ पर अपने निमितका निर्देश कर तैयार किया हुआ भोजन मुनीश्वरोंको देना चाहिये; ऐमा कहा है, क्योंकि ऐसा करनेसे पूर्वोक्त भावों की अनुत्पत्तिमें अर्थात् अरति, खेद न होनेसे दान अहिंसावत होता है। इस अतिथि-संविभागमें परजीवोंका दुःख दूर करनेसे द्रव्य अहिंसा तो प्रगट ही है, रही भावित अहिंसा, तो वह लोभ कषायके त्यागकी अपेक्षासे जानना चाहिये। इति द्वादशव्रतकथनम्। ४-सल्लेखनाधर्मव्याख्यान । इयमेव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ॥१७॥ अन्वयार्थी -[ इयम् ] यह [ एका ] एक [ पश्चिमसल्लेखना एव ] मरणके अतमें होनेवाली सल्लेखना ही [ मे ] मेरे [ धर्मस्वं ] धर्मरूपी धनको [ मया ] मेरे ] [ समं ] साथ [ नेतुम् ] ले चलनेको [ समर्था ] समर्थ है। [इति ] इस प्रकार [ भक्त्या ] भक्ति करके [ सततम् ] निरन्तर [ भावनीया ] भाना चाहिये। ___भावार्थ- मरण दो प्रकार का होता है, पहला नित्यमरण और दूसरा तद्भवमरण। प्रायु श्वासोछवासादिक दश प्राणोंका जो समय समयपर वियोग होता है, उसे नित्यमरण और ग्रहीतपर्याय अथवा जन्मके नाश होनेको तद्भवमरण अथवा मरणान्त कहते हैं । इस मरणान्त समयमें सल्लेखनाका चितवन इस प्रकार करना चाहिये कि इस मनुष्य देहरूपी देश में अणुव्रतरूपी व्यापार करके जो धर्मरूप धन कमाया है, उसे परलोकरूपी देशान्तरमें ले जाने के लिये सल्लेखना ही एक मात्र आधार है। जैसे किसी देशमें कमाये हुए धनकी यदि कोई मनुष्य वहाँसे कूच करते समय याद न करे और किसी दूसरे को सौंप जावे, तो उसका वह धन प्रायः व्यर्थ ही जाता है। इसी प्रकार परलोक-यात्राके समय में अर्थात् मरणान्तमें सल्लेखना न की जावे और परिणाम भ्रष्ट हो जावें, तो दुर्गति हो जाती है, इसलिये मरणः समयमें सल्लेखना अंगीकार करनी चाहिये। १-सह-सम्यक् प्रकारसे लेखना-कषायके कृश (क्षीण) करनेको सल्लेखना-कहते हैं। यह अभ्यन्तर और बाद्य दो भेदरूप है। कायके कृश करने को बाह्य और पान्तरिक क्रोधादि कषायोंके कृश करनेको अभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं। . . .
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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