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________________ प्राचार्य शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव ( पृ० १७७ ) में अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धय पायका 'मिथ्यात्ववेदरामा' प्रादि पद्य 'उक्त च' रूपसे उद्धत किया है, इसलिए अमृतचन्द्र शुभचन्द्र से भी पहलेके हैं और पद्मप्रभ मलधारिदेवने अभचन्द्र के ज्ञानार्णवका एक श्लोक उद्ध त किया है, इसलिए शुभचन्द्र पद्मप्रभसे पहलेके हैं। लेखान्तरमें हमने पद्मप्रभका समय विक्रमकी बारहवीं सदीका अन्त और तेरहवीं सदीका प्रारंभ बतलाया है, इसलिए अमृतचन्द्रका समय विक्रमकी बारहवीं सदीके बाद नहीं माना जासकता। _ डा. ए. एन. उपाध्येने प्रवचनसारकी प्रस्तावनामें तात्पर्यवृत्तिके कर्ता जयसेनका समय ईसाकी बारहवीं सदीका उत्तरार्ध, अर्थात् विक्रमकी तेरहवीं सदीका प्रारंभ अनुमान किया है, और जयसेन अमृतचन्द्रकी तत्त्वदीपिकासे यथेष्ट परिचित जान पड़ते हैं। इससे भी अमृतचन्द्रका समय उनसे पहले, विक्रमकी बारहवीं सदो ठीक जान पड़ता है। क्या अमृतचन्द्रका कोई प्राकृत ग्रन्थ है ? प्रवचनसारकी तात्पर्य कृत्तिमें जयसेनाचार्यने नीचे लिखी दो माथानोंकी टीका की है, परन्तु अमृतचन्द्रसूरिने अपनी वृत्तिमें नहीं की। इससे मालूम होता है कि वे इन्हें मूलग्रन्थकी नहीं मानते थे। पक्केसु अामेसु अविपच्चमाणासु मांसपेसीसु । संततियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं । जो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्म खादि फासदि वा। सो किल णिहणदि पिडं जीवाणमणेगकोडीणं ॥ राजवातिकमें सूत्र २२ की टीका (पृ. २८४ में नीचे लिखी गाथा 'उक्त च' रूपमें दी गई है रागादीणमणुप्पा अहिंसत्तति देसिदं समये । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणे हि णिहिट्ठा। इसी तरह अनगारधर्मामृत टीका (पृ० ५४२) में नीचे लिखी गाथा 'उक्त च' रूपमें दी हुई है अप्पा कुणदि सहावं तत्थ गदा पुग्गला सहावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णुण्णागाढमोगाढा ॥ __हम देखते हैं कि पुरुषार्थसिय पायमें इन चारों गाथाओंका प्रायः शब्दशः अनुवाद इस प्रकार मौजूद है प्रामास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ।। २. देखो नियमसारठीकाका पृ. ७२ और ज्ञानार्णवका पृ० ४३१
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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