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________________ लोक ३७-३८-३६ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः । न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ।। ३८ ॥ २७ अन्वयार्थी - [ श्रज्ञानपूर्वकं चारित्रम् ] जिसके पूर्व में अज्ञानभाव है, ऐसा चारित्र [सम्यग्व्यपदेशं ] सम्यक् नामको [न हि] नहीं [लभते ] पाता, [तस्मात् ] इस कारण [ज्ञानानन्तरम् ] सम्यग्ज्ञान के पश्चात् [ चारित्राराधनं ] चारित्रका प्राराधन [ उषतं ] कहा है। भावार्थ - पहिले यदि सम्यग्ज्ञान न होवे, और पाप क्रियाका त्यागकर चारित्र भार धारण करे, तो वह चारित्र सम्यक्चारित्र नाम नहीं पा सकता, जैसे विना जानी औषधके सेवनसे मरण संभव है, उसी प्रकार विना ज्ञानके चारित्रसे संसारकी वृद्धि होना संभव है । विना जीवके मृत शरीरस्थ इन्द्रियोंके प्राकार जैसे निष्प्रयोजन हैं, वैसे ही विना जानके शरीरका वेष, क्रियाकांडसाधन, शुद्धोपयोग प्राप्ति के साधक नहीं हो सकते । चारित्रं भवति यतः समस्तसाबद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशवमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥ ३६ ॥ अन्वयार्थी - [ यतः ] क्योंकि [ तत्] वह [ चारित्रं ] चारित्र [ समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् ] समस्त पापयुक्त मन, वचन, कायके योगोंके त्यागसे [ सकलकषायविमुक्तं ] सम्पूर्ण कषायोंसे रहित [विशदम् ] निर्मल, [उदासीनम् ] पर पदार्थोंसे विरक्ततारूप और [ श्रात्मरूपं ] ग्रात्म स्वरूप [भवति ] होता है । भावार्थ- समस्त कषायोंका प्रभाव होनेसे यथाख्यातचारित्र होता है । सामायिकचारित्र में यद्यपि सकलचारित्री हुआ था, परन्तु संज्वलनकषायके कारण मन्दता नहीं गई थी, अतएव जब सकल कषायोंसे रहित हुआ, तब यथाख्यातचारित्र नाम पाया अर्थात् चारित्रका जो स्वरूपं था वह प्रकट हुआ । प्रसङ्गोपात्त प्रश्न – स्वभाव चारित्र है कि नहीं ? उत्तर -- शुभोपयोग विशुद्ध परिणामोंसे होता है, और विशुद्धता मंद कषायको कहते हैं । इसलिये कषायकी हीनतासे कथंचित् चारित्र है । पुनः प्रश्न - देव, गुरु, शास्त्र, शील, तप, संयमादिकोंमें होने वाली अत्यन्त रागरूप प्रवृत्तिको जो मन्द कषाय ही है, क्या कहना चाहिये ? उत्तर—यह रागरूप प्रवृत्ति विषय कषायादिकके रागकी अपेक्षा मन्द कषाय ही है, क्योंकि इस राग प्रवृत्ति में क्रोध, मान, मायाका तो नाम नहीं है, रहा प्रीति भावकी अपेक्षा लोभ, सो भी सांसारिक प्रयोजनयुक्त नहीं है । अतएव लोभ कषायकी भी मन्दता ठहरी, और फिर ज्ञानी जीव राग भावोंका प्रेरा हुआ अशुभ रागों को छोड़ शुभ रागमें प्रवृत्त हुआ है, कुछ शुभ रागको उपादेयरूप श्रद्धान नहीं कर बैठा है, बल्कि अपने शुद्धोपयोगरूप चारित्रके लिये मलिनताका कारण ही जानता है, अशुभोपयोगी कषायों की तीव्रता गई है, इसलिये किसी प्रकार चारित्र कह सकते हैं ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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