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________________ लोक २०६-२००] पुरुषार्थसिद्धय पायः । स्पर्शश्च तृणादीनामज्ञानमदर्शन तथा प्रज्ञा । सरकारपुरस्कारः शय्या चा वधो निषद्या स्त्री ।।२०७।। द्वाविंशतिरप्येते परिषोढव्याः परीषहाः सततम् । संक्लेशमुक्तमनसा सक्लेशनिमित्तभीतेन ॥२०८।। विशेषकम् । अन्वयाथों - [ संवलेशमुक्तमनसा ] संक्लेशरहित चित्तवाले' और [ संक्लेशनिमित्तमातेन ] संक्लेश निमित्तसे प्रर्थात् सस रसे भयभीत साधु करके [सततम् निरन्तर ही [क्षुत्] क्षुधा, [तृष्णा तृषा, [हिमम्] शीत, [ उपरण ] उष्ण. [ नग्नत्वं ] नग्नता, [ याचना ] प्रार्थना, [ अरति ] अरति, [अलाभः ] अलाभ, [ मशकादीनां दंशः ] मच्छरादिकोंका काटना [प्राक्रोशः ] कुवचन, [व्याधिदु:खम्] रोगका दुःख, [अङ्गमलम्] शरीरका मल, [तृणादीनां स्पर्शः] तृणादिकका स्पर्श [अज्ञानम्] प्रज्ञान, [ प्रदर्शनं ] प्रदर्शन, [ तथा प्रज्ञा ] इसो प्रकार प्रज्ञा, [ सत्कारपुरस्कारः ] सत्कार, पुरस्कार, [ शय्या ] शयन, [चर्या ] गमन, [वधः ] वध, [निषद्या ] बैठना, [च ] और [ स्त्री ] स्त्री [ ऐते ] ये [ द्वाविंशतिः ] बावीस [ परीषहाः ] परीषह [ अपि ] भी [परिषोढव्याः] सहन करने योग्य हैं। भावार्थ-उपर्युक्त बावीस परीषहोंका जीतना मुनियोंका परम कर्तव्य है। इन परीषहों अर्थात् उपसर्गों के सहनेसे मुनि अपने मार्ग में निश्चल रहता है, और क्षण क्षणमें अनन्त कर्मोंकी निर्जरा करता है । परीषहोंके सहनमें किसी प्रकार कायरता धारण नहीं करना चाहिये और यदि चित्त किसी प्रकार कायर होनेके सम्मुख होवे तो वस्तुके यथार्थ स्वरूपको विचारकर (जैसा प्रत्येक परीषहके वर्णनमें बतलाया जावेगा) उसे उसी समय सुदृढ़ करना चाहिये । परीषहोंका जय किये विना चित्तकी निश्चलता नहीं होती, चित्तकी निश्चलता विना ध्यानावस्थित नहीं हो सकता। ध्यानावस्थित हुए धिना कम दग्ध नहीं हो सकते और कर्मोके दग्ध हुए विना मोक्षकी प्राप्ति असंभव है। अतएव मोक्षाभिलाषी और संसार-दुःखसे भयभीत मुनियोंका पूर्णरूपसे औरगृहस्थोंका यथाशक्ति परीषह जय करना परम कर्तव्य है। १-क्षुधापरीषहजय-भूख की वेदना होनेपर उसके वशवर्ती न होकर दुःख सह लेनेको कहते है। जिस समय मुनिको क्षुधाकी तीव्र वेदना होवे, उस समय उन्हें सोचना चाहिये, कि हे जीव ! तूने अनादि कालसे संसार परिभ्रमणकरके अनन्त पुद्गल समूहोंका भक्षण किया तो भी तेरी भूख न गई ! तुने नरक गनिमें सी तीव्र क्षधावेदना सही है, कि जिसको मुनकर चकित होना पड़ता है। अर्थात् तुझे वहाँ मुमेरु पर्वतके बराबर अन्नराशि भक्षण करने योग्य क्षुधा थी, परन्तु एक कणम त्र भी नहीं मिलता था ! मनुष्य तिर्यञ्चगति में बंदीगृहमें पड़े पड़े तूने अनन्त बार क्षधा सहन की है, फिर अब मुनिव्रतको ग्रहण करके अत्यन्त स्वाधीन वृत्तिको धारण करते हुए भी तू इस अल्प वेदनासे कायर होता है ? देख, अन्य मुनीश्वर पक्षोपवास मासोपवास कर रहे हैं, उन्हें झुधाका दुःख नहीं है, फिर तुझे क्यों होना चाहिये ? अब अनन्त बार किये हुए भोजनकी लालसा छोड़कर ज्ञानामृतका भोजन करना नाहिये । इत्यादि विचारकर क्षुधाजनित दुःखको सह लेना सो क्षध परीषहजय है । १-अर्थात् जिसके चित्तमें क्लेश नहीं है।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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