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________________ रहना । मैं कुछ कहना चाहता था, परन्तु प्रब समय नहीं है। तुम पुरुषार्थ करते रहना' प्रभातमें श्रीमद्जीने अपने लघु भ्राता मनसुखभाई से कहा-'भाई का समाधिमरण है । मैं अपने प्रात्मस्वरूप में लीन होता हूं।' फिर वे न बोले। इस प्रकार श्रीमद्जीने वि० सं० १६५७ मिती चैत्र वदी ५ ( गुजराती ) मंगलबारको दोपहरके २ बजे राजकोट में इस नश्वर शरीरका त्याग किया। इनके देहान्तके समाचारसे मुमुक्षुत्रों में अत्यन्त शोकके बादल छा गये। अनेक समाचार पत्रोंने भी इनके लिये शोक प्रदर्शित किया था। श्रीमद्जीका पार्थिव शरीर आज हमारी प्रांखों के सामने नहीं है, किन्तु उनका सद्उपदेश, जब तक लोकमें सूर्य-चन्द्र हैं तब तक स्थिर रहेगा तथा मुमुक्षुत्रोंको प्रात्म-ज्ञानमें एक महान सहायक रूप होगा। .श्रीमद्जीने परम सत् श्रुत के प्रचारार्थ एक सुन्दर योजना तैयार की थी। जिससे मनुष्यसमाजमें परमार्थ मार्ग प्रकाशित हो। इनकी विद्यमानतामें वह योजना सफल हुई और तद्नुसार - परमश्र व प्रभावक मंडलकी स्थापना हुई। इस मंडलकी प्रोरसे दोनों सम्प्रदायोंके अनेक सद्ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है। इन ग्रन्थोंके मनन अध्ययनसे समाजमें अच्छी जागृति पाई। गुजरात, सौराष्ट्र पौर कच्छमें भाज घर घर सद्-ग्रन्थोंका जो अभ्यास चालू है वह इसी संस्थाका ही प्रताप है। 'रायचंद्र अने ग्रन्थमाला' मंडल की अधीनता में काम करती थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी इस संस्थाके ट्रस्टी और भाई रेवाशकर जगजीवनदासजी मुख्य कार्यकर्ता थे। भाई रेवाशंकरजी के देहोत्सर्ग के बाद संस्था में कुछ शिथिलता प्रागई; परन्तु अब उस संस्था का काम श्रीमद् राजचन्द्र माधम अगासके ट्रस्टियोंने संभाल लिया है और सुचारु रूपसे पूर्वानुसार सभी कार्य चल रहे हैं। इस पाश्रमकी प्रोरसे श्रीमद्जी का सभी साहित्य सुपाठ्य रूपसे प्रकाशित हुआ है। 'श्रीमद् राजचन्द्र' एक विशाल ग्रन्थ है, जिसमें उनके प्राध्यामिक पत्र तथा लेखोंका अच्छ। पग्रह है। श्रीमदजीके विषय में विशेष जानने की इच्छा वालोंको, इस प्राश्रम से प्रकाशित 'श्रीमद राजचन्द्र जीवनकला' अवलोकनीय है। -गुरगभद्र जैन.
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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