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________________ श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् [१-सम्यक्त्वके पाठ अंग ___ ५. उपगृहन' . धर्मोऽभिवर्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया। परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपबृहणगुणार्थम् ॥ २७ ॥ अन्वयाथों-[ उपबृहणार्थम् ] उपबृहण नामक गुणके अर्थ [ मार्दवादिभावनया ] मार्दव क्षमा संतोषादि भावनाओंके द्वारा [सदा] निरन्तर [प्रात्मनो धर्मः] अपने आत्माके धर्म अर्थात् शुद्धस्वभावको [अभिवर्धनीयः] वृद्धिंगत करना चाहिये और [परदोषनिगृहनमपि] दूसरोंके दोषोंको गुप्त रखना भी [विधेयम्] कर्तव्य-कर्म है। भावार्थ-उपबृहण शब्दका अर्थ 'बढाना' है, अतएव अपने आत्माका धर्म बढ़ाना कहा गया, तथा इस अंगको उपगृहन भी कहते हैं, जिसका अर्थ ढाँकना है। इससे पराये दोषोंका ढाँकना लक्षित होता है । क्योंकि दोषोंके प्रकट करनेसे दोषी पुरुषकी आत्माको अत्यन्त कष्ट होता है । कोमलता सरलता आदि भावनाओंसे आत्माके धर्मकी बढ़वारी होती है। और पराये दोषोंके छिपानेसे भी प्रात्मोन्नति होती है, उस दूसरे मनुष्यका भी उससे बहुत सुधार हो सकता है। अतएव यह उपबृहग नामक पाँचवाँ अंग है। ६. स्थितिकरण कामक्रोधमदादिषु चलयितुमुदितेषु वत्मनो न्यायात् । श्रतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।।२८।।... अन्वयाथों-[ कामक्रोधमदाविष ] काम, क्रोध, मद, लोभादि विकार [ न्यायात वर्मनः ] न्यायमार्गसे अर्थात् धर्ममार्गसे [ चलयितुम् ] विचलित करनेके लिए [ उदितेषु ] प्रकट हुए हों तब [श्रुतम्] श्रुतानुसार [प्रात्मनः परस्य च] अपनी और दूसरोंकी [स्थितिकरणम्] स्थिरता [अपि] भी [कार्यम्] करनी चाहिए। भावार्थ-यदि अपने परिणाम धर्मसे भ्रष्ट होते हों तो आपको और यदि दूसरेके होते हों तो दूसरेको जिस प्रकार हो सके धर्ममें दृढ़ करना, यह सम्यक्त्वका स्थितिकरण नाम छट्टा अंग है। ७. वात्सल्य अनवरतहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे । सर्वेष्वपि च समिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ॥२६॥ १-स्वयंशुखस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥१५॥ (र० क०) अर्थात्- "स्वयंशुद्ध मोक्षमार्गकी-अशक्त और अज्ञानी जीवोंके आश्रयसे होती हुई निन्दाके दूर करनेको उपगृहन कहते हैं। २-दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलः । प्रत्यवस्थापनं प्राजैः स्थितिकरणमुच्यते ॥१६॥ (र० क०) अर्थात्-सम्यग्दर्शनसे और सम्यक्चारित्रसे चलायमान होते हुए जीवोंको धर्मवत्सल विद्वानोंद्वारा स्थिरीभूत किये जानेको स्थितिकरण कहते हैं। ३-स्वयूथ्यान् प्रति सद्भावसनाथापेतकतवा । प्रतिपत्तिर्षथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥१७॥ (र० क०) अर्थात्-अपने समूहके धर्मात्मा जीवोंका समीचीन भावसे कपट रहित यथायोग्य सत्कार करनेको वात्सल्य कहते हैं।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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