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श्लोक २७-२८-२६-३०] पुरुषार्थसिद्धयु पायः।
२१ अन्वयाथों-[शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने ] मोक्षसुखरूप सम्पदाके कारणभूत [ धर्मे ] धर्म में, [अहिंसायां] अहिंसामें [च] और [सर्वेष्वपि] समस्त ही [सर्मिषु] साधर्मी जनोंमें [अनवरतम्] लगातार [परमं] उत्कृष्ट [वात्सत्यम् वात्सल्य व प्रीतिको [पालम्म्यम्] अवलम्बन करना चाहिये।
भावार्थ-गोवत्स सरीखी प्रीतिको वात्सल्य कहते हैं। जैसे गाय अपने बछड़ेपर अतिशय प्यार रखती है, उसी प्रकारसे धर्ममें और धर्मात्मानोंमें भी वैसी ही प्रीति रखनी चाहिए । यह सम्यक्त्वका वात्सल्य नामक सातवाँ अंग है।
८. प्रभावना प्रात्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ।। ३० ॥ अन्वयार्थी -- [सततम् एव] निरन्तर ही [रत्नत्रयतेजसा] रत्नत्रयके तेजसे [प्रात्मा] अपने आत्माको [ प्रभावनीयः ] प्रभावनायुक्त करना चाहिये [च ] और [ दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैः ] दान, तप, जिनपूजन, और विद्याके अतिशयसे अर्थात् इनकी बढ़वारी करके [जिनधर्मः] जिनधर्म (प्रभावनीयः) प्रभावनायुक्त करना चाहिये।।
भावार्थ-प्रभाव अतिशय या महिमा प्रकट करनेको 'प्रभावना' कहते हैं, सो अपनी आत्माकी तो प्रभावना रत्नत्रयके तेजसे प्रकट होती है और जिनधर्मकी महिमा जी खोलकर दान देने, तप करने, समारोह सहित पूजन विधान करने और पाठशाला, विद्यालय, सरस्वतीभवन प्रादि स्थापित करनेसे एवं कभी कभी शूरता दिखानेसे प्रकट होती है । सम्यक्त्वका यह प्रभावना नामक पाठवां अंग है। इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचिते पुरुषार्थसिद्धय पाये अपरनाम जिनप्रवचनरहस्यकोषे
सम्यग्दर्शनवर्णनो नाम प्रथमोऽधिकारः ।
२-सम्यग्ज्ञानव्याल्यान। इत्याश्रितसम्यक्त्वः सम्यग्ज्ञानं निरूप्य यत्नेन ।
प्राम्नापयुक्तियोगः समुपास्यं निस्यमात्महितः ॥३१॥ अन्वयार्थी-1 इति । इस प्रकार [प्राश्रितसम्यक्त्वैः । आश्रित है सम्यक्त्व जिनके ऐसे [प्रात्महितैः ] आत्माके हितकारी पुरुषोसे [ नित्यम् ] सर्वदा [ माम्नाययुक्तियोगः ] जिनागमकी १-अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना ॥१७॥ (र. क.)
प्रति-अज्ञानान्धकारको व्याप्तिको जैसे हो सके वैसे दूर करके जिनशासनके माहात्म्यको प्रकाश करना प्रभावना है।