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________________ २२ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ २- प्रमाण - नयस्वरूप परम्परा व युक्ति अर्थात् प्रमाण नयके अनुयोगोंद्वारा [ निरूप्य ] विचार करके [ यत्नेन ] यत्नपूर्वक [ सम्यग्ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान [ समुपास्यं ] भले प्रकार सेवन करने योग्य है । भावार्थ- पदार्थका जो स्वरूप जिनागमकी परम्परासे मिलता है, उसे प्रमाणपूर्वक अपने उपयोग में स्थिरकर यथावत् जानना यही सम्यग्ज्ञानकी यथार्थ सेवा है । प्रमारण नयका संक्षिप्त स्वरूप । प्रमारण 'तत्प्रमाणे, ' तत्त्वार्थ सूत्रके इस वचनसे सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, और प्रमाणके मुख्य दो भेद हैं, पहला प्रत्यक्ष, दूसरा परोक्ष । यहाँपर पहिले प्रत्यक्षप्रमाणके भेदोपभेद बतलाते हैं प्रत्यक्षप्रमाण के दो भेद हैं- पहला पारमार्थिकप्रत्यक्ष, दूसरा सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष । जो ज्ञान केवल आत्मा ही के आधीन रहकर जितना अपना विषय है, उतना विशुद्धतासे स्पष्ट जानता है, वह पारमार्थिकप्रत्यक्ष है और जो नेत्रादिक इन्द्रियोंसे रूप रसादिकको साक्षात् ग्रहणकालमें जानता है, वह सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष है । पारमार्थिकप्रत्यक्ष दो प्रकारका है। एकदेशपारमार्थिकप्रत्यक्ष और सर्वदेशपारमार्थिकप्रत्यक्ष | अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान देशप्रत्यक्ष और केवलज्ञान सर्वप्रत्यक्ष है । सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष व्यवहार दृष्टिमें प्रत्यक्ष कहा गया है; परन्तु परमार्थदृष्टि में परोक्ष ही कहा जाता है, क्योंकि इस ज्ञानसे सर्वथा स्पष्ट जानना नहीं होता । जैसे- किसी वस्तुको नेत्रसे देखते ही ज्ञान हुआ कि, यह वस्तु सफेद है । यद्यपि उस वस्तुमें मलिनताका भी मिलाप है परन्तु स्पष्ट प्रतिभासित नहीं हो सका कि उनमें कितने अंश सफेदीके हैं और कितने मलिनताके हैं। अतएव यह व्यवहार मात्र प्रत्यक्ष है, यथार्थ में परोक्ष है । परोक्षप्रमाण - जो इंद्रियजन्य ज्ञान अपने विषयको स्पष्ट न जाने उसे परोक्षप्रमाण कहते हैं । मतिज्ञान और श्रुतज्ञानसे जो कुछ जाना जाता है, वह सब परोक्षप्रमाण है । इसके मुख्य पाँच भेद हैं । १ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क, ४ अनुमान, और ५ श्रागम । १ स्मृति - पूर्व में जो पदार्थ जाना था उसके स्मरणमात्रको स्मृति कहते हैं । २ प्रत्यभिज्ञान- पूर्व वार्ताका स्मरणकर प्रत्यक्ष पदार्थके साथ जोड़कर निश्चय करनेको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं- जैसे किसी पुरुषने पहिले सुना था कि, गवय ( रोझ) गाय सरीखा होता है, और फिर वह कदाचित् जंगलमें गवय देखकर जाने कि जो गाय सरीखा गवय जानकर सुना था वह यही है । इस ज्ञानमें 'वह' इतने मात्र ज्ञानको स्मृति, 'यह' इतनेको अनुभव, और स्मृति तथा अनुभवसम्मिश्रित 'वह यही है' इतने ज्ञानकी प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । ३ तर्क र व्याप्तिज्ञानको तर्क कहते हैं, और एकके विना एक न होवे इसे व्याप्ति कहते हैं, जैसे अग्निके विना नहीं रहता, आत्माके विना चेतना नहीं रहती, इसी व्याप्तिका जानना तर्क कहलाता है। १ - तत्रोल्लेखि ज्ञानं स्मृतिः, इन्द्रियग्राहिवर्तमान कालावच्छिन्न पदार्थज्ञानमनुभवः, एतदुभयसंकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानमिति २- व्याप्यव्यापकसम्बन्नो हि व्याप्तिस्तद्ज्ञानं तर्क इति ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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