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________________ ७० श्रीमद् राजचन्द्रर्जनशास्त्रमालावाम् इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् । बहुत हिंसा विरहात्तस्याऽहिंसाः विशिष्टा स्यात् ॥ १६६ ॥ [ ३ - प्रतिथि- संविभाग श्रन्वयार्थी - [ यः ] जो गृहस्थ [ इति ] इस प्रकार [ परिमितभोगैः ] मर्यादारूप भोगों से [ सन्तुष्टः ] सन्तुष्ट होकर [ बहुतरान् ] अधिकतर [ भोगान् ] भोगोंको [ त्यजति ] छोड़ देता है, [ तस्य ] उसका [ बहुत हंसाविरहात् ] बहुत हिंसा के त्यागसे [ विशिष्टा अहिंसा महिसाबत [ स्यात् ] होता है । उत्तम भावार्थ - जो श्रावक पूर्वोक्त प्रकारसे भोगोपभोगोंका त्याग निरन्तर किया करता है, उसके लोभ कषायके त्याग से संतोषका श्राविर्भाव होता है, और भोगोंके कारण होनेवाली हिंसाका उन भोगोपभोगोंके साथ सहज ही त्याग होता है। इस प्रकार अहिंसाव्रतका उत्कर्ष होता है । विधिना दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय । स्वरानुग्रह हेतोः कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः । । १६७ ।। श्रन्वयार्थी - [ दातृगुणवता ] दातांके गुणयुक्त गृहस्थकरके [ जातरूपाय श्रतिथये ] दिगम्बर श्रतिथिके लिये [ स्वपरानुग्रहहेतोः ] आप और दूसरेके अनुग्रहके हेतु [ द्रव्यविशेषस्य ] विशेषद्रव्य का अर्थात् देने योग्य वस्तुका [ भागः ] भाग [ विधिना ] विधिपूर्वक [ अवश्यम् ] अवश्य ही [ कर्तव्यः ] कर्तव्य है । भावार्थ - "विधिद्रव्यदातृपात्र विशेषात्तद्विशेषः " तत्त्वार्थाधिगमके इस सूत्रानुसार विधि, दाता, द्रव्य, पात्रकी विशेषतासे दान में विशेषता होती है, अतएव उत्तम दाताको चाहिये कि उत्तम पात्रको उत्तम आहार उत्तम विधिपूर्वक देवे । इस प्रकारका दान अपने और दूसरेके उपकार के लिये होता है, क्योंकि दाताको उत्तम पात्रके दानसे विशिष्ट पुण्यका बंध होता है, तथा पात्रको अर्थात् लेनेवालेको ज्ञान संयमादिकी वृद्धिरूप लाभ होता है, और ये ही दोनोंके उपकार हैं । प्राये हुए अभ्यागतके निमित्त प्रतिदिन भोजनादिकका दान करके पश्चात् श्राप भोजन करे, यह श्रावक्का नित्यकर्म है । इसे तिथिसंविभाग कहते हैं । संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च । atest मनः शुद्धिरेवरण शुद्धिश्च विधिमाहुः ॥ १६८॥ श्रन्वयार्थी - [ च ] और [ संग्रहम् ] प्रतिग्रहण, ३ [ उच्चस्थानं ] ऊँचा स्थान देना, [ पादोदकम् ] चरण धोना, [ अर्चनं ] पूजन करना, [ प्रणामं ] नमस्कार करना, [ वाक्कायमन:शुद्धिः ] मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, रखनी [ ] और [ एषरशुद्धिः ] भोजनशुद्धि, श्राचार्यगण इस प्रकार [ विधिम् ] नवधाभक्तिरूप विधिको [ श्राहुः ] कहते हैं । १ - उत्पन्न होने के समय जिस रूपमें था, वैसा । अर्थात् दिगम्बर । अथवा पात्र के उत्तम गुणोंमे युक्त प्रतिथि। २ - जिनका आगमन तिथिके नियम रहित होता है, अर्थात् जो नियमित तिथिको नहीं प्राते ऐसे अभ्यागत । ३-सत्कारपूर्वक अपने गृहमें अतिथिका प्रवेश करना। ४ - विनयसेवायुक्त परिणाम रखना । ५ - विनयपूर्वक बोलना । ३ - शरीर से यथायोग्य सेवा करना ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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