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________________ ३६ श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्र मालायाम् [ ३ - अहिंसा तत्त्व [ विस्मृतधर्मा ] धर्मको भूला हुआ [ जीव: ] जीव [ प्रविशङ्कम् ] निडर होकर [हिंसाम् ] हिंसाको [ प्राचरति ] प्राचरण करता है । अर्थात् बेधड़क हिंसा करने लगता है । रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते महम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ।। ६ ।। श्रन्वयार्थी - [ च ] और [ मद्यम् ] मदिरा [ बहूनां ] बहुतसे [ रसजानां जीवानां ] रससे उत्पन्न हुए जीवोंकी [ योनिः ] योनि [इष्यते] मानी जाती है, इस कारण जो [ मद्य ] मदिराको [ भजतां ] सेवन करते हैं, उनके [ तेषां ] उन जीवोंकी [ हिंसा ] हिंसा [ अवश्यम् ] अवश्य ही [ संजायते ] होती है । भावार्थ - मदिरा निरन्तर जीवमय रहती है, उसके पानसे उन जीवोंका भी पान होता है, अतएव मदिरा में हिंसा होना अनिवार्य है । श्रभिमानभयजुगुप्साहास्यारतिशोक कामकोपाद्याः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसन्निहिताः ।। ६४ ।। श्रन्वयार्थी -- [ च ] और [ श्रभिमानभयजुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाद्या: ] घमण्ड, डर, ग्लानि, हास्य, अरति, शोक, काम, क्रोध आदि [ हिंसायाः ] हिंसाके [ पर्यायाः ] पर्याय या भेद हैं, और [सर्वेऽपि ] ये सब ही [ सरकसन्निहिताः ] मदिराके निकटवर्ती हैं । भावार्थ - एक मदिरा के पान करनेसे जितने भाव उत्पन्न होते हैं, वे सब हिंसा के ही भेद हैं, सहज ही मदिरापानसे अभिमानादिक सभी भाव होते हैं । न विना प्राणिविधातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ।। ६५ ।। श्रन्वयार्थी - [ यस्मात् ] क्योंकि [प्राणिविघातात् विना] प्राणियोंके घात विना [ मांसस्य ] मांसकी [ उत्पत्तिः] उत्पत्ति [न] नहीं [ इष्यते] मानी जाती, [तस्मात्] इस कारण [ मांसं भजतः ] मांसभक्षी पुरुषके [श्रनिवारिता ] अनिवार्य [हिंसा] हिंसा [प्रसरति] फैलती है । भावार्थ- मांस जीवके शरीरका एक भाग है, जो शरीरको छोड़ अन्यत्र नहीं पाया जाता और शरीरका जब घात किया जाता है, तब ही मांसकी प्राप्ति होती है । अतएव सिद्ध है कि जीव घातके बिना मांस नहीं मिलता । raft किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ।। ६६ ।। 1 अन्वयार्थी - [ यदपि ] यद्यपि [ किल ] यह सच है कि [ स्वयमेव ] आपसे ही [मृतस्य ] मरे हुए [महिषवृषभादेः ] भैंस बैलादिकोंका [मांसं] मांस [ भवति ] होता है, किन्तु [ तत्रापि ] वहाँ भी
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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