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________________ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ उत्थानिका अन्वयार्थी -[ मुनीश्वराः ] ग्रन्थ करनेवाले प्राचार्य [अबुधस्य ] अज्ञानी जीवोंके [बोधनार्थ ] ज्ञान उत्पन्न करनेके लिये [अभूतार्थ ] व्यवहारनयको [ देशयन्ति ] उपदेश करते हैं। और [ यः ] जो जीव [ केवलं ] केवल [ व्यवहारम् एव ] व्यवहारनयको ही साध्य [ अवैति ] जानता है, [ तस्य ] उस मिथ्यादृष्टिके लिये [ देशना ] उपदेश [ नास्ति ] नहीं है। भावार्थ--अनादिकालके अज्ञानी जीव व्यवहारनयके उपदेश दिये बिना समझ नहीं सकते, इस कारण प्राचार्य उनको व्यवहारनयके मार्गसे ही समझाते हैं। जैसे--किसी मुसलमानको एक ब्राह्मणने प्राशीर्वाद दिया, परन्तु वह कुछ भी न समझ सका, और उस ब्राह्मणके मुहकी तरफ देखता रह गया। उसी समय वहाँ एक द्विभाषिया आ गया और उसने समझा दिया कि, 'आपका भला हो ' ऐसा ब्राह्मण महाशय कहते हैं । यह सुन मुसलमानने आनन्दित हो उसे अंगीकार किया, ठीक इसी प्रकार अज्ञानी जीवोंको 'आत्मा' ऐसा नाम लेकर उपदेश दिया गया, परन्तु जब अज्ञानी जीव उसको कुछ भी न समझे और प्राचार्य महाशयके मुहकी ओर देखने लगे, तब व्यवहार और निश्चयनयके जाननेवाले उन महात्मा आचार्योंने व्यवहारनय द्वारा भेद उत्पन्न कर समझा दिया कि यह जो देखनेवाला, जाननेवाला और आचरण करनेवाला पदार्थ है, वही आत्मा है । घृतसंयुक्त मिट्टीके घडेको व्यवहार में घृतका घड़ा कहते हैं, और कोई पुरुष जन्मसे ही उसे 'घृतका घड़ा ' जानता है, यहाँतक कि वह उसे बिना 'घृतका घड़ा' कहे समझ ही नहीं सकता, मिट्टीका घड़ा कहनेसे भी नहीं समझ सकता, तथा कोई दूसरा पुरुष उसे कोरे घडेके नामसे ही समझता है, परन्तु यथार्थमें विचार किया जावे तो वह घड़ा मिट्टीका ही है, केवल उसे समझानेके लिये ही 'घृतका घड़ा ' नाम कहा जाता है, ठीक इसी ही प्रकार चैतन्यस्वरूप प्रात्मा कर्मजनित पर्यायसंयुक्त है, उसे व्यवहार में देव मनुष्य इत्यादि नाम दिये जाते हैं; क्योंकि अज्ञानी जीव अनादिकालसे देव मनुष्यादि स्वरूप ही जानते हैं । यहाँतक कि वे आत्माको देव मनुष्यादि कहे विना समझ ही नहीं सकते, यदि कोई उन्हें चैतन्यस्वरूप प्रात्मा कहकर समझावे, तो वे अन्य कोई परब्रह्म परमेश्वर समझ लेवें, और निश्चयपूर्वक विचार किया जावे, तो प्रात्मा चैतन्यस्वरूप ही है, परन्तु अज्ञानियोंके समझानेके लिए प्राचार्य गति, जाति, भेदसे जीवका निरूपण करते हैं, सो यही व्यवहारनय है । मारणवक एब सिंहो यथा भवत्यनवयोतसिंहस्य । । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्वनिश्चयज्ञस्य ॥ ७॥ अन्वयार्थी-[ यथा ] जैसे [ अनवगीतसिंहस्य ] सिंहके सर्वथा नहीं जाननेवाले पुरुषको [ मारणवकः ] बिल्ली [ एव ] ही [ सिंहः ] सिंहरूप [ भवति ] होती है, [ हि ] निश्चय करके [ तथा ] उसी प्रकार [ अनिश्चयज्ञस्य ] निश्चयनयके स्वरूपसे अपरिचित पुरुषके लिये [ व्यवहारः ] व्यवहार [ एव ] हो [ निश्चयतां ] निश्चयनयके स्वरूपको [ याति ] प्राप्त होता है। १-यह सद्भूतव्यवहारनयका उपदेश है। २-यह असद्भूतव्यवहारनयका उदाहरण है।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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