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श्लोक ६-१० ]
पुरुषार्थसिद्धघु पायः। आठ प्रकार स्पर्श', दो प्रकार गंधर, पाँच प्रकार रस 'पाँच प्रकारवर्ण", इत्यादि पौद्गलिक लक्षणोंसे रहित अमूर्तीक जीव है । उक्त विशेषणसे जीवकी पुद्गलसे पृथकता प्रकट की गई है, क्योंकि यह आत्मा अनादिसम्बद्धरूप पुद्गल द्रव्यमें अहंकार ममकाररूप प्रवृत्ति करता है। पुनः “गुरणपर्यायसमवेतः" पुरुष गुण पर्यायोंसे तदात्मक है, क्योंकि द्रव्य-गुण-
पर्यायमय है। प्रात्मा एक द्रव्य है, इसीलिये गुणपर्यायों सहित विराजमान है । गुणका लक्षण सहभूत" है अर्थात् जो द्रव्योंमें सदाकाल पाये जावें, उन्हें गुण कहते हैं । आत्मामें साधारण और असाधारण भेदसे दो प्रकारके गुण हैं, जिनमें ज्ञान दर्शनादिक तो असाधारण गुण हैं, क्योंकि इनकी प्राप्ति अन्य द्रव्योंमें नहीं है । और अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादिक साधारण गुण हैं, क्योंकि ये अन्य द्रव्योंमें भी पाये जाते हैं । पर्यायका लक्षण क्रमवर्ती है, द्रव्योंमें जो अनुक्रमसे उत्पन्न होवें उन्हें पर्याय कहते हैं । आत्माके यह पर्याय दो भेदरूप हैं । १ नर नारकादि प्राकृतिरूप व सिद्धाकृतिरूप व्यञ्जनपर्याय और रागादिक परिणमनरूप छह प्रकार हानि-वृद्धिरूप अर्थपर्याय । इन गुण पर्यायों से प्रात्माकी तदात्मक एकता है। इस विशेषणसे आत्मा का विशेष्य जाना जाता है। तथा-"समुदयव्ययध्रौव्यैः समाहितः" नवीन अर्थपर्याय व व्यञ्जनपर्यायकी उत्पत्तिको उत्पाद, पूर्व पर्यायके नाशको व्यय, और गुणकी अपेक्षा व पर्यायकी अपेक्षा शाश्वतपनेको ध्रौव्य कहते हैं। प्रात्मा इन तीनोंसे संयुक्त रहता है, जैसे-सुवर्णकी कुण्डल पर्यायमें उत्पत्ति ( उत्पाद ) कंकणसे विनाश ( व्यय ) और पीतत्वादिक व सुवर्णत्वकी अपेक्षा ध्रौव्य ( मौजूदगी ) रहता है। इस विशेषणसे आत्माका अस्तित्व व्यक्त होता है ।
परिणममानो नित्यं ज्ञानविवत्तरनादिसन्तत्या। परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च ॥१०॥
अन्वयार्थी -[सः] वह चैतन्य आत्मा [अनादितन्तत्या] अनादि परिपाटीसे [नित्यं] निरन्तर [ज्ञानबिवतः] ज्ञानादिगुणोंके विकाररूप रागादि परिणामों से [ परिणममानः] पणिमता हुमा [स्वेषां] अपने [ परिणामानां ] रागादि परिणामोंका [ कर्ता च मोक्ता च] कर्ता और भोक्ता भी [ भवति ] होता है।
भावार्थ-यह आत्मा अनादिकालसे अशुद्ध हो रहा है। आज ही इसमें कुछ नवीन अशुद्धता नहीं हुई है, हमेशा कर्मरूप द्रव्यकर्मसे रागादिक होते हैं और फिर रागादिक परिणामोंसे द्रव्यकर्मका बंध होता है, आत्मा और अशुद्धताका "सुवर्णकीटिकावत्" (सुवर्ण और उसकी कीटके समान)अनादि सम्बन्ध है । आत्मा इस कर्मरूप अशुद्ध सम्बन्धसे अपने ज्ञान स्वभावको विस्मरण किये हुए उदयागत कर्मपायोंमें इष्ट अनिष्ट भावसे रागादिकरूप परिणमन करता है। यद्यपि इन परिणामों का कारण द्रव्यकर्म है, तथापि
१-शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कठोर, हलका, भारी । २-सुगन्ध-दुर्गन्ध। ३-तिक्त, कटुक, कपाय ना, खट्टा, मीठा । ४-लाल, पात, श्वेत, नील, कृष्ण । ५-सह-द्रव्यके साथ है भूत- सत्ता जिसकी।