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- श्रीमद् रामचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम [५-प्रात्माका रागसे बंध भावार्थ-यात्मविनिश्चयप्रकाशक प्रात्मपरिज्ञानसे आपके द्वारा आपमें ही स्थिर होना इसका नाम अभेद (सकल) रत्नत्रय है, फिर इस प्रकारकी बुद्धि परिणतिमें बंधका अवकाश कहाँ ? बंध तो तब होता है, जब इस परणतिसे विपरीत होकर परिणमन करता है । अर्थात् इससे यह सिद्धान्त सिद्ध हुमा, कि जिन अंशोंसे यह प्रात्मा अपने स्वभावरूप परिणमन करता है, वे अंश सर्वथा बंधके हेतु नहीं हैं; किन्तु जिन अंशोंसे यह रागादि विभावरूप परिणमन करता है, वे ही अंश बंधके हेतु हैं ।
योगात्प्रदेशबन्धः स्थितिबन्धो भवति तु कषायात् ।
दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ॥२१५।। अन्वयाथों-[ प्रदेशबन्धः ] प्रदेशबन्ध' [योगात्] मन, वचन, कायके व्यापारसे [तु] तथा [ स्थितिबन्धः ] स्थितिबन्ध [ कषायात् ] क्रोधादिक कषयोंसे [भवति ] होता है, परन्तु [ दर्शनबोधचरित्रं ] सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय [ न ] न तो [ योगरूपं ] पोगरूप हैं [च ] और न [ कषायरूपं ] कषायरूप ही हैं।
भावार्थ-संसारी आत्माकी मन, वचन, कायकी हलन-चलनरूप क्रियाको योग कहते हैं । इस योगकी क्रियासे पासवपूर्वक प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है, और राग द्वेष भावोंकी परणतिको कषाय कहते हैं । इसके अनुसार स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध होता है । यथा-सयोगकेवलीके योगक्रिया से सातावेदनीका समयस्थायीबन्ध है, स्थितिबन्ध नहीं है। क्योंकि उनके कषायका सद्भाव नहीं है। प्रतएव सिद्ध हुपा कि योगकषाय ही बन्धके कारण हैं, सो रत्नत्रय न तो योगरूप ही है, और न कषायरूप ही है, फिर बन्धका कारण कैसे हो सकता है ?
ऊपर कह चुके हैं कि, जीवके प्रदेशों में हलन चलनरूप क्रियाविशेषको योग कहते हैं इन योगदारोंसे कर्मोंका पात्रव होता है, और पश्चात कर्मके योग्य पुद्गलोंके ग्रहणसे जीव और कर्मपुद्गलोंके
कक्षेत्रवगाहरूप स्थित होनेको बन्ध कहते हैं। यह बंध चार प्रकारका है-स्थितिबंध, अनुभाग उन्ध, प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबंध । बन्धोंके उक्त भेदोभेद जाननेके पहिले हमको चाहिये, कि कर्मपुद्गलोंको जिनसे कि बन्ध होता है, अच्छी तरह जान लें। ये कर्म पुद्गल आठ प्रकारके हैं -१ ज्ञानावरणी', २ दर्शनावरणी, ३ वेदनी' ४ मोहनी, ५ आयु, ६ नाम, ७ गोत्र और ८ अन्तराय । ज्ञानावरणीकर्मका स्वभाव परदेके समान है। जिस प्रकार परदा पड़ जानेसे पदार्थको यथार्थ नहीं देखने देता, उसी प्रकार जानावरणी कर्म पुद्गल प्रात्माके प्रदेशोंसे सम्बन्ध करके तत्त्वज्ञान नहीं होने देता। वर्शनावरणीका स्वभाव द्वारपाल के समान है, अर्थात जिस प्रकार द्वारपाल परका दर्शन नहीं होने देता, इसी प्रकार दर्शनावरणीकर्मपुद्गल आत्मासे सम्बन्ध करके प्रात्मा श्रद्धान नहीं करने देता, वेदनीका स्वभाव शहद नपेटी तीक्ष्ण असिधारके समान है, अर्थात् जैसे छरी चाटमेसे मीठी लगती है, परन्तु अन्तमें जीभका
१-प्रदेशबन्धसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध दोनोंका ग्रहण किया है। २-स्थितिबन्धसे स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध दोनोंका ग्रहण किया है। ३-'कायवाङ्गमनःकर्मयोगः' इति वचनात् ।
४-इनमें से चार कर्मोकी घातियाकर्म और आयु नामादि चारकी अघातियाकर्म संज्ञा है, क्योंकि पातियाकर्मोका क्षय होचकनेपर अघातियाकर्म बलहीन हो जाते हैं।