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________________ श्लोक ६५ - १०२ } पुरुषार्थसिद्धय पायः । [ प्रमत्तप्रोगेकहेतुकथनं ] प्रमादसहित योग हो एक हेतु कहा गया है, [तस्मात् ] इसलिये [ अनृतवचने ] असत्य वचनमें [ अपि ] भी [ हिंसा ] हिंसा [ नियतं ] निश्चितरूपसे [ समवतरति ] आती है । भावार्थ - जहाँ कषाय है, वहाँ हिंसा है और असत्य भाषण कषायसे ही होता है, अतएव असत्य वचन में हिंसा अवश्य होती है । at प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । यानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।। १०० ॥ ४७ अन्वयार्थी - [ सकलवितथवचनानाम् ] समस्त ही प्रनृत वचनोंका [ प्रगत्तयोगे ] प्रमादसहित योग [हेत ] हेतु [ निर्दिष्टे सति ] निर्दिष्ट किये जानेसे [ हेयानुष्ठानादेः ] हेय उपादेयादि अनुष्ठानोंका [ अनुवदनं ] वहना [ श्रसत्यम् ] झूठ [ न भवति ] नहीं होता । भावार्थ- प्रनृत वचनके त्यागी महामुनि हेयोपादेयके उपदेश बारम्बार करते हैं, पुराण और कथाओं में नाना प्रकार अलङ्कारगर्भित नवरसपूर्ण विषय वर्णन करते हैं, उनके पापनिंदक वचन पापो जीवोंको तीरसे अप्रिय लगते हैं, सैकड़ों जीव दुखी होते हैं, परन्तु उन्हें असत्य भाषणका दोष नहीं लगता, क्योंकि उनके वचन कषाय प्रमादसे गर्भित नहीं हैं । इसीसे कहा है कि प्रमादयुक्त प्रयथार्थ भाषणका नाम ही अनृत है । भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमाः मोक्तुम् । येsपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु ।। १०१ ।। अन्वयार्थी - [ ये ] जो जीव [भोगोपभोगसाधनमात्रं ] भोगोपभोग के साधनमात्र [ सावद्यम् ] सावद्यवचन [ मोक्तुम् ] छोड़ने को [ श्रक्षमाः ] असमर्थ हैं, [ते श्रपि ] वे भी [शेषम् ] शेष [ समस्तमपि ] समस्तही [श्रनृतं ] असत्य भाषण को [ नित्यमेव ] निरन्तर ही [ मुञ्चन्तु ] छोड़ो । भावार्थ - त्याग दो प्रकारका है, एक सर्वथा त्याग, दूसरा एकोदेश त्याग । जिसमें से सर्वथा समस्त प्रकार के प्रनृतों का त्याग मुनि धर्म में है और उसे मुनि अवश्य ही करते हैं। परन्तु गृहस्थ अपने सांसारिक प्रयोजन सावद्य वचनों के विना नहीं चला सकता, इसलिये यदि गृहस्थ सावद्य वचनों का त्याग न कर सके, तो न सही, परन्तु अन्य सब प्रकार के प्रनृत वचनों के बोलने का त्याग तो अवश्य कर्तव्य है । श्रवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ।। १०२ ।। अन्वयार्थी - [ यत् ] जो [ प्रमत्तयोगात् ] प्रसाद कषाय के योग से [ अवतीर्णस्य ] विना दिये या वितरण किए हुए [परिग्रहस्य ] सुवर्ण वस्त्रादि परिग्रहका [ग्रह] ग्रहण करता है, [तत्] उसे [स्तेयं] चोरी [प्रत्येयं ] जानना चाहिये [च] और [सा एव] वही [ बधस्य ] वधके [हेतुत्वात् ] हेतुसे [हिंसा ] हिंसा है ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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