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________________ ६८ श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमालायाम् [ - भोगोपभोग- परिमाण प्रण्डर पाये जाते हैं जैसे- शरीर में हाथ पाँव आदि। एक अण्डर में असंख्यात लोक परिमित पुलवी होते हैं : जैसे— हाथ पावों में अँगुली आदिक । एक पुलवी में असंख्यान लोक परिमित प्रवास होते हैं, जैसे अँगुलियों में तीन भाग । एक आवास में श्रसंख्यात लोक परिमित निगोद शरीर होते हैं, जैसे - अंगुलियों के भागों में रेखायें और फिर एक निगोद के शरीर में सिद्धसमूहसे अनन्तगुणे जीव पाये जाते हैं, जैसे- रेखाओं में अनेक प्रदेश ।” इस प्रकार एक साधारण हरित वनस्पतिके टुकड़े में संख्यातीत जीवोंका अस्तित्व रहता है जिनका कि जिह्वाके थोड़ेसे स्वादके लिये विषयी जीव घात कर डालते हैं । विचारवान् पुरुषोंको ऐसा करना सर्वथा अनुचित है। नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् । द्वापि पिण्डशुद्ध विरुद्धमभिधीयते किञ्चित् ।।१६३।। श्रन्वयार्थी - [ च ] और [ प्रभूतजीवानाम् ] बहुत जीवोंका [योनिस्थानं ] उत्पत्तिस्थानरूप [ नवनीतं ] नवनीत अर्थात् मक्खन [ त्याज्यं ] त्याग करने योग्य है, [ वा ] अथवा [ पिण्डशुद्धौ ] प्राहारकी शुद्धता में [ यत्किञ्चित् ] जो थोड़ा भी [ विरुद्धम् ] विरुद्ध [ श्रभिधीयते ] कहा जाता है, (तत्) वह [ श्रपि ] भी त्याग करने योग्य है । भावार्थ - देही में से निकाले हुए मक्खनका यदि तत्काल ही श्रग्निपर तपाकर घृत नहीं बना लिया जावे, तो वह मक्खन दो ही मुहूर्त के पश्चात् अनन्त जीवरूप हो जाता है, अर्थात् उसमें अपरिमित जीव पैदा हो जाते हैं । इसलिये व्रती गृहस्थको इसका त्याग अवश्य ही करना चाहिये । प्राचार - शास्त्रों में जिन पदार्थों को अभक्ष्य बतलाया है, उनका भी त्याग करना चाहिये। जैसे- चर्मस्पर्शित घृत, तेल, जल हिंग्वादि तथा दुग्ध, दधि' मिष्टान्न, अनछाना पानी, विना जाना फल, घुना बीघा मन्न, बाजारका आटा, अचार ( अथाना - संघाना ) मुरब्बा प्रादि । श्रविरुद्धा प्रपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्याः । प्रत्याज्येष्वपि सीमा कार्येकदिवानिशोपभोग्यतया ।। १६४ ।। श्रन्ययार्थी - [ धीमता ] बुद्धिवान् पुरुष करके [ निजशक्तिम् ] प्रपनी शक्तिको [ अपेक्ष्य ] देखकर [ श्रविरुद्धाः ] अविरुद्ध [ भोगाः ] भोग [ श्रपि ] भी [ त्याज्याः ] त्याग देने योग्य हैं, और जो [ प्रत्याज्येयु ] उचित भोगोपभोगों का त्याग न हो सके तो उनमें [ श्रपि ] भी [ एकदिवानिशोपभोग्यतया ] एक दिन रातकी उपभोग्यतासे [ सीमा] मर्यादा [ कार्या] करना चाहिये । १- कच्चा दूध अन्तर्मुहूर्तके उपरान्त अपेय (नहीं पीने योग्य) है । २ - चौबीस घटेके पश्चात् दही अभक्ष्य है । ३ - श्रधिक समय बीत जानेसे मिष्टान्न में सूक्ष्म लट (जीव विशेष ) पड़ जाते हैं । ४- जिसमें से सूर्यका प्रतिबिम्ब नहीं दिखाई दे, ऐसे सघन ( गाढ़े ) कपड़े के बत्तीस श्रगुल लम्बे और चौबीस पंगुल चौड़े छन्ने (नातने) को दुहरा करके जल छानना चाहिये । छने हुए पानीकी मर्यादा यदि बढ़ाना हो, तोउसे उष्ण ( गर्म ) करके अथवा लवगादि तीक्ष्ण पदार्थ डालके बड़ा सकते हैं। नहीं तो प्रत्येक मुहूर्त के पश्चात् छान के पीना चाहिये ।
SR No.022412
Book TitlePurusharth Siddhyupay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1977
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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