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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जय महावीर
(महाकाव्य)
माणकचन्द रामपुरिया
विकास प्रिन्टर्स एण्ड पब्लिशर्स
मामा-भान्जा की दरगाह फड बाज़ार, बीकानेर (राज.)
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विकास प्रिन्टर्स एण्ड पब्लिशर्स मामा-भान्जा की दरगाह फड बाजार, बीकानेर द्वारा प्रकाशित
प्रथम संस्करण, महावीर जयन्ती
22 अप्रैल 86
नागरी प्रिण्टर्स, नवीन शाहदरा fact-1:0032 द्वारा मुद्रित
मूल्य : 8000 रुपये
JAI MAHAVEER (EPIC) by Manak chand Rampuria
Publisher Vilas Printers & Publishers
Mama-Bhanja Ki Dargah
Phad Bajar, Bikaner (Rajisthan )
First Edition Mahaveer Javanti-22nd April '86 Price Rs 8000 Printed by Nagri Printers
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जय महावीर
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年第业,完
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तेरा ही 'जय महावीर' मै
__ तुझे समर्पित करता। अपना सुख-दुख, विजय-पराजयजीवन अर्पित करता ॥
-माणकचन्द रामपुरिया
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आत्म-भाव
तीर्थकर भगवान् श्री महावीर के तपोनिष्ठ-महा समुद्रवत् जीवन को पढकर, दृष्टि के सम्मुख वही अपार महासिन्धु लहरा उठता है, जिसका न ओर है, न छोर । अनन्त, सीमाहीन जल-राशि । केवल जल-राशि । 'और उसकी उच्छल अगाघ तरगे।
भगवान् श्री का जीवन साधना के उस पुजीभूत उन्नत शिखर-सा है, जहाँ पहुँचना किसी भी साधारण मनुष्य के लिए अति दुष्कर है, फिर मेरे जैसा सभी तरह से अल्पज्ञ, साधन-विहीन प्राणी उस शिखर की कल्पना भी कर ले, तो यह उसके पूर्व जन्म का पुण्य ही कहा जाएगा।
'जय महावीर' आपके सम्मुख है।
कैसा है ? मैं नहीं कह सकता । अपनी ओर से मैं तो इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि तप मूर्ति भगवान् श्री के तेजोमय जीवन के विभिन्न अशो का स्पर्शमात्र ही इस पुस्तक मे किया गया है। उस अगाध महासिन्धु को पूर्ण रूप मे भला किसने रेखाकित, मन्दाकित किया है ? अथाह सागर लहरा रहा है-तट पर खडे प्राणी अपने-अपने पात्रानुसार जल-राशि ग्रहण करते है । किन्तु, किसी ने सर्वांश मे सिन्धु को ग्रहण किया? कौन कर सकता है ? तीर्थकर भगवान् महावीर अथाह, अनन्त पारावार है । इनके जीवन के विभिन्न अगो को एक नजर देख लेना भी सबके वश की बात नही । जो भी इस ओर दृष्टिपात करता है-वह कभी एक पक्ष, कभी दूसरा पक्ष-सम्पूर्ण रूप मे किसने देखा? अथाह पयोधि को किसने वांधा है ?
प्रस्तुत काव्य मे जीवन-पक्ष ही प्रधान है । सैद्धान्तिक पक्ष स्पर्श-मात्र ही है। कारण-सैद्धान्तिक पक्ष अभेदकारी है। सभी तीर्थंकरो के साथ सैद्धान्तिक बाते एक ही रही है उनमे भेद नहीं है । किन्तु, जीवन-पक्ष मे भेद रहा है । जिस प्रकार आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव के तपोनिष्ठ जीवन की तुलना दयामूर्ति भगवान नेमिनाथ मे अथवा किसी अन्य से नहीं की जा सकती, इसी प्रकार 24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर के तपस्यामय जीवन की समकक्षता, दूसरे से नहीं हो सकती।
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वर्धमान की तपस्या उनकी तपस्या थी। साधना के मार्ग मे उन्होने जो परिसय सहे वे उनके थे। उन अनुभवो की तुलना दूसरे से नहीं की जा सकती । जीवन-पक्ष सदा भेदमय ही रहा है।
अन्य की रचना भी एक सयोग ही है । तीर्थंकर भगवान् महावीर का प्रसग चल उठा था। उनकी अथाह-अगाध तपस्या-निर्भयता आदि की चर्चा चल रही थी। सहसा मन मे आया, भगवान श्री का जीवन-चरित लिखा जाय। इनके जीवनचरित ऐसे तो बहुत है, किन्तु काव्य-रूप मे मुझे नहीं मिले। और फिर मैं जो लिखने बैठा, पुस्तक समाप्त करके ही उठा। लगा उन दिनो भगवान् प्रतिक्षण मेरी दृष्टि के सम्मुख रहे हैं । ऐसा भी लगा है कि उन्होंने स्वय लिख लिया है - बात भी सही है-मैं तो, निमित्त मात्र ही हूँ। वे जिस रूप मे प्रेरित करे मैं प्रस्तुत हूँ।
अन्त मे-जिन लोगो से पुस्तक प्रकाशन मे थोडी भी सहायता मिली है, उनके प्रति आभार प्रकट करते हुए, श्रमण भगवान् महावीर को हार्दिक कोटानुकोटि वन्दन ।।
।। शुभास्तु॥
-माणकचन्द रामपुरिया
रामपुरिया भवन, बीकानेर (राज.) महावीर जयन्ती, 22 अप्रैल 1986
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,
अनुक्रमणिका
प्रथम सर्ग / 15 द्वितीय सर्ग / 20
तृतीय सर्ग / 30
चतुर्थ सर्ग / 41
पचम सर्ग / 50
षष्ठम सर्ग / 60
सप्तम सर्ग / 73
अष्टम सर्ग / 79
नवम सर्ग / 92
दशम सर्ग / 101
एकादश सर्ग / 105
द्वादशसर्ग / 109
त्रयोदश सर्ग / 115
चतुर्दशसर्ग / 124
पचोदश सर्ग / 129
पष्ठोदश सर्ग / 137
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जय महावीर
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वन्दना
देव दयामय करुणा सागरसकल सृष्टि है तेरा अनुचर ।।
ज्ञानमयी तव ज्योति विमल सेउज्ज्वल भूतल शुभ्र कमल से।
जय महावीर/13
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दया करो अब तम मिट जायेकलुष न मन मे कुछ रह पाये ।
शुभ्र आत्म-दर्शन का क्षण होपावन भूतल का कण-कण हो ।
नमन तुम्हें करता हूँ प्रतिपल - तेरी करुणा मेरा सम्बल ।
हो सकल्प हृदय का पूरारहे न कोई भाव अधूरा ।
चरणो पर मैं नत मस्तक हूँतेरे दर्शन का चातक हूँ ।
तेरा जीवन पावन धाराधन्य हुआ पा भूतल सारा ।
पूर्ण कामना हो अन्तर की - शक्ति जगे नव मेरे स्वर की ।
देव दयामय करुणा सागर - सकल सृष्टि है तेरा अनुचर ॥
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प्रथम सर्ग
प्रभु की लीला वडी गहन हैकितना चचल मानव मन है । जहाँ प्रेम की धार चाहिएकरुणा अपरम्पार चाहिए ।
जय महावीर
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1
वहाँ द्वेप-हिसा जगती हैअशुभ घृणा मन मे पगती है । तप का निर्मल भाव नही हैसयम- शान्त प्रभाव नही है ।
शुद्ध तत्व से हीन हृदय मेसत्व गुणो के निर्मम क्षण मे । भव को कैसे शान्ति मिलेगीज्ञान ज्योति की प्रभा खिलेगी ?
कैसे कोई मन विहँसेगाकैसे पुण्य विभव का लेगा ? सोच, धरित्री अकुलाती हैसमझ नही कुछ भी पाती है ।
तभी अचानक दिव्य गगन सेज्योति फूटती चेतन मन से । कोई मार्ग दिखा जाता हैसुन्दर विश्व बना जाता है ।
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जान चेतना का जगता हैभुवन प्रकाशित-सा लगता है। द्वेष-घृणा सव धुल जाते हैद्वार पुण्य के खुल जाते है।
मानव-मानव बनने लगताज्ञान हृदय मे जगने लगता। लेकिन यह भी तव सम्भव हैहोता पावन नर उद्भव है।
और नही तो कोई कैसेधो सकता है अन्तर कैसे ? ऐसे ही जव घटा घिरी थीसुख की सारी घडी फिरी थी।
हिमा का साम्राज्य विद्या थामन मे निर्धन भाव छिपा था। मानव-दानव से लगते थेअच्छे भाव नहीं जगते थे ।
जय महावीर /17
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सयम की तो बात न पूछोकैसी थी वह रात न पूछो । ज्ञान तपस्या सब दूभर थेतिमिराच्छन्न-सघन घर-घर थे।
लोभ ग्रसित धरती रोती थीपूरी साध नही होती थी। दीन-हीन सब नारी-नर थेदुख से पीडित अन्तरतर थे।
तभी किरण-सा कोई आयाभव को निर्मल शुभ्र बनाया। सब कहते वे तीर्थकर थेज्ञान-किरण नव ज्योति प्रखर थे।
नयी साधना जग मे जागीदुख की रजनी तत्क्षण भागी। यही साधना उज्ज्वल होकरभव को ही कल्मप से धोकर ।
18 / जय महावीर
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तेजपुञ्ज हो मूर्त रूप मेतीर्थकर के ही स्वरूप मे । मिली जगत को निर्मल वनकरदिव्य प्रभा-सा पल-पल भास्वर ।
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आकर जग को मार्ग दिखायाभव के तम को दूर भगाया । जग की पावन - पुण्य भूमि पर -
सत्य-तपस्या रूप उतर कर
आत्म-ज्ञान कल्याण बतातेजन-जन को है सुखी वनाते । इनके निर्मल पुण्योदय से - तम पर अविरल ज्योति - विजय से ।
भव को निश्चय मान हुआ हैजन-जन का कल्याण हुआ है । हुई सृष्टि पर वृष्टि विभव कीज्योति जगी नवभव उद्भव की ।।
जय महावीर / 19
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द्वितीय सर्ग
पुण्यमयी यह धरती जिस पर -
20 / जय महावीर
आते देव महान |
अपनी दिव्य प्रभा से भव का
करते है कल्याण ||
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जन्म ग्रहण करता है प्राणी
भूपर
बारम्बार ।
अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है, जिससेहोता है उद्धार ॥
विमल मोक्ष के तत्व धरा परकर सकते सब प्राप्त ।
पुण्य - बीज, जो पडता, होताफिर वह नही समाप्त ॥
जनम-जनम वह चाहे भटकेरहता है निर्भीक । कभी नही वह विचलित होतामिलती जिसको लीक |
सत्पथ की यह लीक प्रवल है
मानव का
इससे ही होता है निश्चयभव का शुभ उत्कर्ष ॥
आदर्श |
जय महावीर / 21
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धन्य वही है, जिसको मिलतीऐसी निर्मल निर्मल जोत । प्रेम भाव में रहता है वह - प्राणी
ओत-प्रोत ।।
सभी जीव
एक सदृश हैंनही किसी मे भेद ।
एक तरह ही सभी मनातेहर्प-शोक ओ खेद ||
मानव को उन्नत करती हैऔर न कोई चीज ।
एक मात्र है जहाँ ज्ञान का - निर्मल सात्विक बीज ॥
उसके ऊपर कभी न पडताअघ का कुटिल प्रभाव ।
सदा अनघ है, सत्यरूपमय
उसका स्वय स्वभाव ||
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महावीर ने भी पाये थे
_ भव मे जन्म अनेक । लेकिन मन मे सदा टिकी थी
विमल सत्य की टेक ॥
जाने कितने जन्म हुए थे
पाये कितने क्लेश । किन्तु हृदय मे रहा पुण्य ही
अतिम क्षण तक शेप।।
जन्म पचीसो का धरती पर
आया है उल्लेख । उनके सव कृत्यो का भू पर
__ मिलता है अभिलेख ।।
एक वार पर मन मे जो था
जागा दिव्य प्रकाश। नव-नव वह नित वढता आया
हुआ न उसका नाश ।।
जय महावीर | 23
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यही भेद है, जव जगता है
सत्य किरण का रूप । नित-नित खिलता, पर असत्य का
हो जाता विद्रूप॥
निर्मल बीज पडा था मन मे
निर्मल था सस्कार। फूट पडा वह अनायास ही
वनकर पुण्य अपार ।।
वैमानिक-निकाय मे जव थे
देव रूप मे लीन। सोचा, धरती पर आने का
लेकर जन्म नवीन ।।
वैशाली के
वृपभदत्त कीपत्नी प्रभु-लवलीन। की कुक्षी मेहोकर परम प्रवीण।।
देवानन्दा
24 / जय महावीर
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उतरे भव मे,
रोम-रोम
भव से निर्मलवनकर दिव्य प्रकाश । मे देवानन्दाके जागा
सहसा चौदह स्वप्न जगे थे
भाव भरे
भरपूर ।
उल्लास ||
वृषभदत्त थे, मुनकर बोले
X
कष्ट हुआ सब दूर ॥
तुमने देखे स्वप्न भामिनीपुण्यमयी
होगा सभी गुणो से
अभिभूत । भूषित
कोई दिव्य सपूत ॥
X
X
किन्तु सभी का स्वप्न धरा पर
कव होता है पूर्ण ।
विघ्न अनेको आकर करतेप्रतिक्षण चकना चूर ॥
जय महावीर / 25
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चिन्तित इन्द्र हुए, यह होगी -
भू पर कैसी किसी दीन ब्राह्मण के घर मेबिहँसे यह जल जात ||
नही, नही वे क्षत्रिय के घरलेंगे जन्म
26 / जय महावीर
तभी करेगे पाप-पुञ्ज
धरती का
X
X
सद्धर्मो मे लीन भुवन रहते सदा
उदार ।
इस
क्षत्रिय कुण्ड नगर के राजा
पुण्यवती
वात |
उद्धार ॥
X
इनकी रानी त्रिशला भी थी
सिद्धार्थ ।
मे
परार्थ ॥
जाग्रत
ज्ञान-विवेक ।
सदा भजन करती थी धर करमन मे प्रभु की टेक ॥।
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गर्भवती वह हर क्षण प्रभु के
भावो मे तल्लीन । प्रतिक्षण पूजा करती थी नित
भर कर भाव नवीन ।।
दूत बुलाकर कहा इन्द्र ने
जाकर आज तुरन्त । दोनो गर्भो का परिवर्तन
कर दो प्यारे भत ।।
हरी णैगमेषी ने आकर
देवानन्दा पास। गर्भ लिया-फिर त्रिशला के घर
आये वे सोल्लास ।।
गर्भ-परावर्तन का सारा
काम हुआ जब शेष। स्वय इन्द्र से बोला-पूरा
हुआ सभी आदेश ॥
जय महावीर / 27
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सुनकर इन्द्र बहुत हए
बोले-तुम हो धन्य । तुम्ही देखना इससे जग मे
होगे कार्य अनन्य ।।
आज धरा पर जो सकट है
होगे निश्चय नष्ट । अपनी ज्ञान विभा से भू का
दूर करेगा कष्ट ।।
तुमने पूरा किया आज है
देवो का ही काम । निश्चय ही धरती पर होगा
इसका शुभ परिणाम॥
देवपूज्य यह मनुज धरा को
देगा शुभ वरदान । इसके वचनामृत से होगा
कष्टो का अवसान॥
28 / जय महावीर
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धन्य कुक्षि त्रिशाल की पावन
__ निर्मल परम पवित्र। तेज-पुञ्य अवधारित जिसमे
जग का शाश्वत मित्र।
आज विश्वमाता है त्रिशला
जननी परम पुनीत । गूंजेगे इस जग मे उसके
भाग्य विभव के गीत ।।
धन्य स्वय सिद्धार्थ कि जिन को
प्राप्त हुआ यह इष्ट। पायेगे जो जग मे ऐसा
उत्तम पुत्र अभीष्ट ॥
जय महावीर /29
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तृतीय सर्ग
महाराज सिद्धार्थ भवन मेभजते थे नित प्रभु को मन मे । उनका पुण्य भरा था जीवनसुख-सौभाग्य भरे थे पुरजन ।।
30/जय महावीर
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कही न कोई कष्ट हृदय मेरहते थे वे सुख अक्षय मे । भाग्यवती वह त्रिशला रानीसभी तरह से थी कल्याणी ||
नृप के ही सग वह भी रहती - प्रभु की परम भक्ति मे बहती ॥ जग मे रहकर जग से बाहरकमल-पत्र - सी निर्मल सुन्दर ॥
उसके जीवन की थी रेखाप्रभु को प्रतिक्षण उसने देखा || था ऐश्वर्य वहाँ पर साराउन्नत था। सौभाग्य सितारा ॥
किसी वस्तु की कमी नही थीदुख की बातें नही कही थी । सुख से सब का मन चचन्न थाभरापुरा वह राज महल था ।
जय महावीर / 31
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सुख के बाजे नित बजते थेमन से सुन्दर सब सजते थे। कोट-कँगूरे सब थे सुन्दरसुन्दरता थी भीतर बाहर ।।
जहाँ जरा भी आँखे जातीसुन्दरता से ही टकराती । रेशम जैसा कण-कण कोमलनयन-नयन मे कज्जल-काजल ।।
कही न कोई तनिक मलिन थेसबके ही मन भावन दिन थे। सव थे सुन्दर, हृदय खिला थाफूलो को मकरन्द मिला था ।।
वागो मे कोयल नित गातीमधुपावलियाँ थी मँडराती। तरह-तरह के फूल सलोने खिले हुए थे कोने-कोने ।।
32 / जय महावीर
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पुष्पित-सी थी पूरी नगरीकमल-नाल-सी ऊपरउभरी। हर्षित थे सव चहल पहल मेअपने सुरभित रूप धवल मे ॥
नव उमग-सी लहराई थीसुख की विमल घटा आई थी। त्रिशला अपने राज भवन मेतद्रिल सोच रही थी मन मे॥
प्रभु की मनहर-सुखमय गाथासाधु-जनो ने जिसे कहा था। सहसा लगा कि बाहर मन सेकुछ है निकला उसके तन से ।।
और पुन वह उर में आयामानो उसने सरवस पाया । गर्भ-परावर्तन का क्षण थापल-पल सुन्दर मन भावन था।
जय महावीर / 33
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रोम-रोम था उसका पुलकितमहानन्द की छवि से शोभित । जागी मन मे नयी विभा-सीहो ज्यो प्रभु-दर्शन की प्यासी॥ -
लगा कि जैसे जाग गयी हैकिरण-किरण तक नयी-नयी है। सिह सामने आकर सुन्दरदेख रहा था उसको जी भर ।।
हाथी भी फिर वहाँ खडा थाऐरावत-सा बहुत बड़ा था। वृपभ एक सुन्दर-सा आयासुख सौभाग्य धरा पर छाया॥
फिर तो, खुद ही लक्ष्मी आईशेष बचा जो सब कुछ लाई। युगल, पुष्प माला थी मनहरनये-नये-फूलो मे गुंथकर ।।
34 / जय महावीर
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चाँद गगन में मुस्काता थामन का मोद बढा जाता था। सूर्य देव भी नभ मे आयेभू के तम को दूर भगाये।
ध्वजा गगन मे फहराती थीकीर्ति भुवन की वढ जाती थी। रौप्य कुम्भ था सुन्दर-मनहरचम चम जैसे स्वय दिवाकर ।।
पुन दृगो मे आया सुन्दरसुरभित मगल पद्म सरोवर । पुन. क्षीर सागर लहराया क्षण-क्षण का आनन्द बढ़ाया।
देव विमान दिखा फिर ऊपर महामोद मे पुलकित सत्वर । रत्न राशि की ढेर लगी थीनयन-नयन में प्रीत जगी थी।
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विमल अग्नि निर्धम जगायेसुख-सौभाग्य भुवन के आये । ये चौदह अनमोल सुहानेसपने देखे थे त्रिशला ने 1
देख हुई थी पुलकित मन मे सुख के आँसू गिरे नयन मे । आकर पति के पास हृदय से प्रीति-सजोये नेह-निलय से ।
36 / जय महावीर
बोली- महाराज की जय होपरम भक्ति की सदा विजय हो । राजन, मैंने खुद ही देखे है कल चौदह सपने |
अपने
इतना कह वह फिर बतलातीएक-एक कर नाम बताती । हँसकर पूछा -अर्थ भला क्या ? है सपनो की नयी कला क्या
?
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मुझे बता दे, मैं क्या जानूंकसे, यह लीला पहचानूं। ये सपने है कितने पावनकैसे कह दूं मन-से भावन ।
इसी लिए मे पूछ रही हूँसुख सरि मे कल रात बही हूँ। राजभवन मे नृप ने आ केस्वप्न विशारद को बुलवा के ।
पूछा-इसका अर्थ बतायेकुछ मतलव इसका समझाये । सव ने शुभ मुहूर्त फिर देखालिया ग्रहो का भी सब लेखा।
सव नक्षत्रो की शुभ गति कोदेखा आदि और फिर इति को। पोथी-पत्र लिया, विचाराथा मुहूर्त वह अनुपम न्यारा।
जय महावीर / 37
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मन से क्षण मे हुए अचम्भितरोम-रोम तक हो आनदित। बोले राजन शुभ्र प्रहर हैबडा दयामय परमेश्वर है।
क्या बतलाऊँ यह सब क्या हैमिला तुम्हे धन त्रिभुवन का है। जो कहता हूँ, सच कहता हूँज्ञान-ज्योति मे ही रहता हूँ।
वीणापाणी जो कहलातीज्ञानमयी जो कुछ बतलाती । वही तुम्हे कहता हूँ सुन लोवात हमारी मन से गुन लो।
पुत्र रत्न जो होगा तुम कोनप्ट करेगा भव के तम को। सर्व श्रेप्ठ वह ज्ञानी होगाआत्मिक वल का मानी होगा।
38 / जय महावीर
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तपोनिष्ठ सौन्दर्य विभव कामगल करने वाला भव का । पुत्र रत्न वह होगा ऐसाहुआ न भू पर अब तक जैसा ।
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सब गुण भूषित सबसे सुन्दरचकित रहेगे खुद विश्वम्भर । सुनकर नृपति मोद मे भर कर - आये राजमहल मे सत्वर ।
बोले- रानी से मुस्का केउनको अपने पास बिठा के । देखो, सब ने बतलाये हैस्वप्न बडे सुन्दर आये है ।
बालक तुम्हे मिलेगा ऐसाहुआ नही भूतल पर जैसा । सुनकर रानी पुलकित तन से - प्रभु की पूजा की फिर मन से ।
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विप्र महाजन को बुलवायासबको सादर वहाँ बिठाया। दान दिया अञ्जलि मे भरकरकिया सभी कुछ स्वय निछावर।
रोम-रोम तक उसका जागादुख-दैन्य सव भव से भागा। करना है अब प्रभु का स्वागतयह अपूर्व क्षण का है आगत ।
मन मे निर्मल भाव जगायेसब ने मिलकर मोद मनाये। आनन्द लहर लहराई भू परपुष्प खिले खुशियो के मनहर ।
40/ जय महावीर
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चतुर्थ सर्ग
धरती थी यह सुभग सलोनी
कण-कण था सरसाया। तृण-तृण तक मे खुशी अपरिमित
मोद अतुल लहराया ॥
जय महावीर
Page #44
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पेड़ों की फुनगी पर चिडिया
गीत मनोहर गाती। मलियानिल की पुरवाई-सी
हवा गध ले आती ।।
नील गगन मे खुशियाँ छाई
किरण-किरण थी पुलकित । पृथ्वी के कण-कण पर मानो
नयी प्रभा आलोकित ।।
सभी तरफ आनन्द-लहर थी
वडी सुखद लहराई । जाने कैसी घडी सुवासित
वसुधा पर थी आई।
लगा कि सबने मिलकर की है
स्वागत की तैयारी। घर-घर मे लगता था जैसे
उत्सव होता भारी ।।
42 / जय महावीर
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कदलि-खम्भ सब रोप रहे थे
वन्दनवार सजाते। मुकुल-बकुल तक पर थे भँवरे
गुन-गुन कर मँडराते ।
चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी थी
मध्यरात की बेला। राज महल मे लगा हुआ था
साधु-जनो का मेला ।।
ऐसे ही क्षण, प्रभु भी मानव- ।
तन मे स्वय पधारे। बने महारानी त्रिशला के
दृग के नूतन तारे॥
शुभ मुहूर्त वह मगल क्षण था
भाव-सुमन मुस्काया। शकुन सुमगल आज धरा पर
स्वय उतर कर आया ।।
जय महावीर /43
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'राज महल मे जय-जय गूंजा - गूंज उठी शहनाई ।
सिंह द्वार पर मधुर स्वरो मे - वजने लगी
लोग-बाग सब आ आ कर थेस्वय बधाई
विप्र महाजन दान नृपति सेमुँहमाँगा ही
देवलोक की स्वय देवियाँ - दौडी भू पर
प्रभु का कर शृगार उन्हे फिर
नूतन पर
वधाई ॥
44 / जय महावीर
देते ।
दिव्य प्रकाश धरा पर फैला -
भागा तिमिर भुवन का । सुरभित पवन प्रवाहित होकर
आता था नन्दन का ||
लेते ॥
आई |
पहराई ॥
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होकर सब अभिपुष्ट वहाँ से
देवलोक मे आ के। प्रभु का सव गुण-गान सुनाया
उनका मगल गा के ।।
आकर किया प्रणाम इन्द्र ने
मन से पुलकित होकर। अपनी दिव्य किरण से प्रभु के
पावन पग को धोकर ।।
उनको लेकर तत्क्षण फिर वे
आये मेरु-शिखर पर । सजा वही पर जन्म-लग्न का
पहला उत्सव मनहर ।।
मेरु-शृग के ऊपर सुन्दर
__एक शिला पर लेकर। वैठे इन्द्र स्वय थे सवको
शुभ निदेश कुछ देकर ।।
-जय महावीर / 45
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सभी देवता और देवियाँ - आये खुशी मनाने |
प्रभु के पावन जन्मोत्सव मे
मंगल साज सजाने ||
देवलोक मे वजी
गूंजा
कल्प वृक्ष ने फूल
वधाई
साज
मनोहर ।
फूल गिरायेखिलकर उनके ऊपर ॥
प्रभु का शुभ अभिषेक हुआ फिर
46 / जय महावीर
स्वर्ण कलश के जल से ।
स्वयं अलकृत हुए मागलिक
अगरु गध-शतदल
से ॥
जन्मोत्सव का देव-पुरी मे
हुआ महोत्सव पूरा | शकर ने भी वहाँ खुशी मे -
छाना
भाँग-धतूरा ॥
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तरह-तरह के मोदक लड्डू
सबने खूव लुटाये । सभी मगन थे आज धरा पर
स्वय महाप्रभु आये ।।
इन्द्रराज फिर लेकर उनको
राजमहल मे आये। त्रिगला के ही स्वर्ण-सदन मे
चुपके उन्हे सुलाये ।।
प्रभु की लीला, जैसे ही वे
धरती पर है आते। जाग उठे सव वडो खुशी से
अपने मोद मनाते ।।
होने लगी धरा पर फिर से
उत्सव की तैयारी। राज महल फिर गूंज उठा औ'
जुड आये दरवारी।।
जय महावीर / 47
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बजे नगाडे-शख अनेको
ढोल-झॉझ औ' तासा। झर-झर झरे खुशी से लोचन
रहा न कोई प्यासा ।।
जन-परिजन औ' पुरवासी सब
आकर जय-जय कहते। महामोद की लोल लहर मे
सब थे निर्भय रहते ।।
सव कुटुम्ब के लोग जुटे औ'
गुणी-पुरोहित आये ।। वर्धमान है नाम शुभकर
सव ही यह बतलाये।
कहा कि ये सम्पन्न गुणो से
परम धीर है आये । चक्रवती-नृप, श्रेष्ठ जनो के
लक्षण है सब पाये।
48 / जय महावीर
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कहा कि जब तक चन्द्र-दिवाकर
इनका नाम रहेगा। इनके अतुल पराक्रम की नित
गाथा विश्व कहेगा।
जय महावीर / 49
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पंचम सर्ग
गुण ही मानव को मानव से
उन्नत श्रेष्ठ बनाते है अपनेपन को विकसित करके
मनुज देव बन जाते है॥
50 / जय महावीर
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देव-मनुज मे इस धरती पर
थोडी-सी ही दूरी है। पूर्ण विकास हुआ तो उसकी
यात्रा होती पूरी है।
सद्गुण के जो बीज हृदय मे
एक वार भर आते है। दिन-दिन वे वढते जाते है
कभी नही मिट पाते है।
जग मे जो भी आते आ के
भू का धर्म निभाते है। खेल-खेल मे दिव्य - ज्योति का
दर्शन स्वय कराते है।
वर्धमान के गुण की चर्चा
देवपुरी मे होती है। स्वय इन्द्र ने कहा कि वीरो
मे यह अद्भुत मोती है ।
जय महावीर | 51
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बालक पन से ही है इसमेंलक्षण सव पुरुषोत्तम के । भरे हुए हैनिर्भय गुण नर- उत्तम के ||
कूट-कूट कर
यह है, जिसको इस धरती पर - कोई डरा नही सकता ।
इनके मन को मलिन जरा भीकोई वना नही सकता ।
महज आठ ही वर्ष अभी तोइनके होने को आये ।
लेकिन खेल विकट पौरुप केकितने ही है दिखलाये ॥
देवो मे ही कितने
कितने आकर
52 / जय महावीर
आ केकठिन परीक्षा लेते है । परम तत्व की इनसे दीक्षा लेते है ॥
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खेल रहे थे 'आमल की' का
खेल एक दिन उपवन मे। एक देव बन सर्प भयकर
आया तत्क्षण उस वन में ।।
विषधर अपने फन को ताने
शीश उठा फुकार उठा। स्वय पवन भी क्षुभित गरल से
होकर अपरम्पार उठा।
साथी-सगी जो भी थे सव
देख उसे घबडाते है। खेल छोडकर डर के मारे
वे सव भागे जाते है।
कोई कहता भागो जत्दी
विषधर वडा भयकर है। वर्धमान ने कहा, रोक कर
मुझे नही इसका डर है ।।
जय महावीर /53
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उनका मुखडा सदा प्रफुल्लित
भय का था लव-लेश नही। चिह्न तनिक उद्विग्न हृदय का
आनन पर था शेप नही ।।
तुरत पकड कर उस विपधर को
दूर कही धर देते है। अपनी पूरी मित्र मण्डली
को निर्भय कर देते है। xxx
हुए सफल जब वर्धमान तब
देव पुन अकुलाते है । नयी परीक्षा लेने के हित
दौड धरा पर आते है।
एक दिवस सव वालक मिलकर
खेल रहे थे उपवन मे। छद्म वेश मे देव पधारे
द्वेप भरा था कुछ मन मे ॥
54 / जय महावीर
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खेल-खेल
मे वर्धमान को
कधे पर ले भाग चला। उस बाल-मडली को वह सहसा त्याग चला।।
अनायास
जैसे ही
लेकिन
वह भागा बालक
अन्य सभी घबडाते हैं । कोई वर्धमान को
बचा नहीं वे पाते है।
जैसे ही वह भागा क्षण मे
विकट-वेश धर लेता है। अपना बदन वढाकर भीषण
दानव का कर लेता है।
कधे पर थे वर्धमान वे
तनिक नही घवडाते है। वज्र मुप्टि से उसके सिर पर
घूसा एक लगाते है ।।
जय महावीर /55
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उस प्रहार से व्यथित देव ने
सद्विवेक सव खो डाला। आज पडा था उसे भयकर
पुरुप-सिह से ही पाला॥
होकर प्रकट तुरत निज तन मे
क्षमा मांगता है सत्वर । शान्त हुए फिर वर्धमान भी
अभय दान उसको देकर।।
बाल-मडली
हर्पित होकरमन से खुशी मनाती है। इनकी गाथासदा फैलती जाती है।
दूर-दूर तक
देव-लोक मे गुजित थे स्वर
देव सभी हाए थे। वर्धमान के जय की गाथा
सुनकर दौडे आए थे।
236/मंच महावीर
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गूंज रहा था जय-जय का स्वर
देव-गणो के कानो मे। वर्धमान की जय के स्वर थे
गुजित पवन तरानो मे ।।
कल्पवृक्ष
की डाली-डालीइस स्वर को दुहराती थी।
की माल्यवती सेइसकी ही ध्वनि आती थी।
स्वर्ग-लोक
मलय पवन चलता था, वह भी
जय का ही स्वर लाता था। वर्धमान की जय का स्वर ही
सभी तरफ से आता था।
नन्दन वन के फूल सुकोमल
विहँस-विहम खिल जाते है। उनके सौरभ मे भी जय के
स्वर ही भर कर आते है।
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नन्दन वन मे देव - गणो की
सभा तुरत लग जाती है। वर्धमान की 'जय' तत्क्षण ही
वहाँ पहुँच जग जाती है।
दिशा-दिशा मे गूंज रहा था
वर्धमान की जय का स्वर । शिखर-शिखर तक गूंज रही थी
प्रतिध्वनि उसकी ही सुन्दर ।।
स्वय इन्द्र ने भरी सभा मे
उनको समुचित मान दिया। "महावीर" उद्घोपित कर के
उनको नव सम्मान दिया ।
वर्धमान को 'महावीर' यह
पावन नाम प्रदत्त हुआ। उनके गुण-गौरव की महिमा
सुनकर सब आसक्त हुए।
58 / जय महावीर
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उनके विकट पराक्रम के सब
गाथा जग मे ख्यात हुए। महावीर के शुभ्र नाम से
जग मे वे प्रख्यात हुए ।
वालक-पन से ही सब उनके
____यश की गाथा गाते है। उनके पावन चरित धरा पर
सुनते और सुनाते है।
वल-विक्रम
महावीर के
की अनुपम गाथाघर-घर मे सब गाते है। पावन पग परश्रद्धा सुमन चढाते है।
उनके चरित-सिन्धु का जो भी
अवगाहन कर पाता है। भव मे वह भी होकर निर्मल
पद पवित्र वन जाता है ।।
जय महावीर / 59
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षष्ठम सर्ग
सभी गुणो के जो है धारक होते वे ही जग-उद्धारक ।
___ मति-श्रुति निर्मल अवधि-ज्ञान से
सदा समन्वित गुण महान् से।
60 / जय महावीर
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उनका सत्य स्वरूप निरन्तरसदा प्रकाशित निखर-निखर कर।
उनको कुछ भी दोष न रहतामन मे दुख अवशेष न रहता।
बुद्धि विमल खुद सब कहती हैपास शारदा नित रहती है।
लेकिन जग के प्राणी कैसेसमझे को है निर्मल ऐसे ।
जग की लीक निराली होतीदृग भरमाने वाली होती।
उसको शाश्वत ज्ञान न होतापत्थर को आँसू से धोता।
आँख हृदय की जव खुलती हैकालिख मन की जव धुलती है।
तभी समझ वह कुछ पाता है'विश्व निराला' -कह जाता है।
जय महावीर /61
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स्वयं नृपति सिद्धार्थ विकल थेपुत्र मोह से खुद चचल थे।
विमल 'ज्ञान शाला' मे जा केवर्द्ध मान को खुद घेठा के।
सोचा, निर्मल ज्ञान मिलेगाभूतल पर सम्मान मिलेगा।
पता नही था, जो है कर्ताआखिर भुवन का पोपक भर्ता।
वही देह धर मूर्त खडा है
__ जग का फिर क्या तत्व बडा है। हस्तामलक उसे सब रहताउसकी वाणी से सब कहता।
भू पर इन्द्र उतर आते हैस्वय 'ज्ञान शाला' जाते है।
खुद ही लेकरके आसन पर।
महावीर को वैठते गुरु
62 / जय महावीर
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चकित सभी होकर के क्षण मे
लगे सोचने अपने मन मे। यह क्या रीति जगत की भाईइसने कैसी बुद्धि दिखाई।
स्वय इन्द्र ने प्रश्न अनेकों
किये और फिर कहा कि देखो इनका गुम्फित तत्व समझ कर कौन भला दे सकता उत्तर ।
महावीर ने सव उद्घाटन
किया बताकर सव विश्लेपण। सुनकर जन-जन हुए अचम्भितदिव्य ज्ञान से भाव-समन्वित ।
फिर तो ज्ञान प्रभा लहराई
दिव्य छटा धरती ने पाई। लोग हुए पुलकित आनदितप्रभा समुज्ज्वल से मदीपित।
ज्य महावीर | 63
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उनको राज महल मे लाकरकिया प्रतिष्ठित उच्चासन पर।
बढकर उनसे धीर कहाँ हैजान मति गम्भीर कहाँ है।
इसी तरह क्षण लगे बीतनेसमय सुहावन लगे रीतने ।
युवा अवस्था प्राप्त हुए जवमहावीर भव-आप्त हुए जब।
सोचा नृप ने, चाह करे अबइनका शुभ्र विवाह करे अव ।
समरवीर सामन्त वही थेशुद्ध तत्त्व-विद्वान कही थे।
पुत्री उनकी पावन शुभदापुण्यवती थी नाम यशोदा।
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X
नगर-डगर सब सजा सुहानागीतो का फिर जगा तराना।
64 / जय महावीर
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शोभा पूरे राज नगर की
गली-गली की डगर-डगर की। ऐसी थी मन मोहक, जिसकीउपमा देना किसके बस की।
लोग-बाग सब सजे-धजे थे।
घर-घर बाजे खूब बजे थे। सभी तरफ बस सुख लुटता थामानो दुख का दम घुटता था ।
धूम धाम से व्याह रचाया
जिसने माँगा जो भी, पाया। मिली यशोदा महावीर सेज्ञान-दीप, दृढ, परम धीर से।
राग रग सव होते घर-घरसर-सर सरते मुख के निर्झर ।
पुत्री एक हुई फिर चचलदूध-धुला तन कोमल-कोमल ।
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भोली-भाली बडी मुहसनानाम पडा था-पुण्य-दर्शना।
उसे देख सब खुश होते थेपुण्य सलिल से दृग धोते थे।
...
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सुख-वैभव सव भरा-पुग थासभी भले कोई न बुरा था।
एक कामना सबके मन मेंवसी हुई थी राज सदन मे।
वने नही वे परम विरागीबने मधुर जोवन-अनुरागी।
यही रहे, यह धरा न त्यागेहमे छोडकर कभी न भागे।
किन्तु, तपस्वी महावीर नेकव सोचा यह परम धीर ने
उनके मन मे लगन लगी थीभव के हित की जोत जगी थी।
66 / जय महावीर
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राग-रंग तो सब होते थेइनमे पर वे कब खोते थे।
इनमे इन से ऊपर रह कर। रत थे साधन मे सव सह कर ।
कोई इनको बाँध न पायाकिसी लोभ ने नहीं सताया।
पत्नी आई, रहे अकम्पितपुत्री भी आती थी पुलकित।।
किन्तु ग्रहण का भाव नही थावन्धन-स्नेह-प्रभाव नहीं था।
जल मे रह कर जल से ऊपरसरसिजवत् ही थे जीवन भर ।
कठिन साधना का तप सहतेभव मे भव से ऊपर रहते।
बढता आया समय निरन्तरमहाराज थे चिन्तित भू पर।
जय महावीर 67
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त्रिशला भी थी ध्यान लगायेमन मे प्रभु को सदा बसाये।
दोनो ने ही यहाँ धग परकिये पुण्य ही थे जीवन-भर ।
तन पवित्र औ शुद्ध हृदय थाजीवन साधनमय निश्चय था।
देकर श्री, नन्दी वर्धन कोराजपाट औ सारे धन को।
कर सथारा स्वर्ग सिधारेचमके नभ मे दिव्य सितारे।
महावीर ने मोचा मन मेसब का हो कल्याण भुवन मे।
महज अठाइस वर्प हुए थेयौवन के उत्कर्ष हुए थे।
सोचा, इस गृहस्थ आश्रम कोस्वय तिलाञ्जलि देगे तम को।
68 / जय महावीर
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महाप्रस्थान करेगे सत्वरहोगा जिससे भूतल सुन्दर ।
ज्येष्ठ-बन्धु नन्दीवर्धन सेवोले, श्रद्धा पूर्वक मन से।
नत मस्तक हो किया निवेदनभइया तुमको मेरा वन्दन।
हाथ जोडकर कहता हूँ मैभव की पीडा सहता हूँ मैं ।
दुनिया के दुख कैसे-कैसे रहूँ देखता कैसे, ऐसे।
__जाने दे, मैं सच कहता हूँ
रह कर घर मे कव रहता हूँ।
सुनकर बोले-- नन्दीवर्धनरोकेगा वया तुमको बन्धन ।
जान रहा हूँ तेरी लीलादेखा रूप अतुल चमकीला।
ज्य महावीर/ 69
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तुम इस जग के नही जीव होमहाज्योति की प्रबल नीब हो।
वही करोगे, जिसमे निश्चयहोगी धरती दुख से निर्भय ।
किन्तु कहो क्या, बोलूं मुख से माता ओरि पिता के दुख से ।
अभी कहाँ कुछ त्राण मिला हैलगता मन पर धरी शिला है।
ऐसे में जब तुम भी मेरेपास न होगे सॉझ-सवेरे।
तब मै कैसे जी पाऊँगाकैसे सॉस चैन की लूँगा।
फिर भी मैं कुछ रोक न सकतापथ से तुमको रोक न सकता।
जिसमे जग का पुण्य समाहितउसको वाँधू अपने ही हित।
70/जय महावीर
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ऐसा कभी नहीं कर सकतासिर पर पाप नही धर सकता।
अभी मात्र दो वर्ष यहाँ पररहो हमारे साथ वन्धु वर ।
फिर जो चाहोगे, कर लेनापुण्य जगत का सिर धर लेना।
कभी नही मै रोकूँगा फिरजगत तेरी ही है आखिर ।
इतना कह कर शान्त हुए जवमहावीर ने चरण छुए तव ।
फिर वे बोले-जो कहते हैखूव समझता, जो सहते है।
बात आपकी मान रहा हूँअलग आपसे भला कहाँ हूँ।
दो वर्षों तक अभी रहूँगायही तपस्या-ताप कहूँगा।
ज्य महावीर /71
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खिले कि जैसे खिलता शतदल।
सुख से वे क्षण भर हपाएदृग मे अश्रु खुशी के छाए।
72 / जय महावीर
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सप्तम सर्ग
महावीर थे पुण्य धरा पर
मन से परम तपस्वी। मन विजेता दिव्य ज्ञान के
ज्ञानी श्रेष्ठ मनस्वी॥
जय महावीर / 73
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राज महल में
साधु-सरीखेसौम्य सरल थे रहते। था उनकाबात विनय से कहते॥
सयममय जीवन
उनतीस वर्षों मे ही वे जव
और प्रौढ वन आए। नौ लोकान्तिक देव वहाँ पर
आकर कुछ समझाए।
कहा कि-"जय हो, महावीर ही
अव कल्याण करेगे। भव मे दुख का जो प्रदाह है
निश्चय वही हरेगे॥
धर्म तीर्थ की शीघ्र स्थापना
अव तो शीघ्र कराये। जग का हो कल्याण, यहाँ सुख
शान्ति विमल फैलाये॥
74/ जय महावीर
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विनय सुनाकर देव वहाँ से
आये नील निलय मे। लगे सोचने महावीर भी
अपने शुद्ध हृदय मे॥
एक वर्ष ही शेष बचा है
प्रवज्या लेने मे। चलो लगूं मैं अभी यही से
अपना सब देने मे॥
मुक्त हस्त से दान सभी को
देते है नित उठकर । मणि-धन-वरत्राभूपण कितने
नव-नव किए निछावर ॥
गेह-त्याग के पूर्व यही तो
सवसे उत्तम साधन । महावीर ने लिया खुशी से
उसका ही आलम्बन ।।
ज्य महावीर /75
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(एक वर्ष तक हंसते-हँसते
सब कुछ वहाँ लुटाये। खुद को अपने आप तपाकर
और सुदृढ वन आये ।।
रहा न कोई दृग के आगे
रीता वहाँ अकिंचन । मुक्त हस्त से महावीर ने
जहाँ लुटाया कचन ।।
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वर्षीदान हुआ जब पूरा
कर ली नव तैयारी। आत्मा के नव शुद्ध वरण मे
चलने की थी वारी॥
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सुरसरि की धारा हो जैसे
शुद्ध भाव थे जगते। हस्तामलक सिद्धि थी सारी
दूर नही कुछ लगते।।
76/जय महावीर
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जग का हो कल्याण इसी मे
सदा निरत रहते थे ।
परम शान्ति की बात हृदय से - सब को ही कहते थे ।
मन मे कल्मप नही शेष था
दृढ थे अपने व्रत पर ।
मन साधना के तप से ही -
वर्षीतप की
पाते थे सन्तोष
बढ़ते रहे निरन्तर ॥
लीला सत्र ने
अद्भुत देखी भू पर । अखण्डित
अपना सब कुछ देकर ॥
जो भी लेना महा प्रमादी
समझ मुखी हो जाता ।
वह भी प्रभु के विमल भाव मे -
सहज वही खो जाता ॥
जय महावीर / 77
Page #80
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महावीर की महा प्रसादी
कह-कह कर सब लेते। सबकी इच्छा सरल भाव से
पूर्ण तुरत कर देते।
विनय-सहित सब ले लेते थे
महावीर जो देते। कोई प्रश्न न उठता मन मे
जव प्रसाद वे लेते ।।
महावीर
की
महाप्रसादीसबके सुख की दाता।
धनवालाक्षण मे ही बन जाता।
पाकर निर्धन भी
एक वर्ष की कठिन साधना
पूरी जव हो आई। किरण विमल फूटी अम्बर मे
जन-जन की सुखदाई ।।
78 / जय महावीर
Page #81
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Huਟਸ
ਗੇ
महावीर अनगार धर्म के
लिए स्वत उद्यत हैं। त्याग मोह सम्पूर्ण परिग्रह
जीवन मे ही रत है।
ज्य महावीर /79
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स्थावर-जगम जो भी दिखते
सृष्टि लुभाने वाली। कुञ्ज-लता सुपमित छवि जग की
मन बहलाने बाली॥
सवमे है आसक्ति भरी सव
__ पथ के गेडे होते। ये आकर्पण पुण्य नही, बस
वीज जहर के बोते।।
सवसे बडा मोह का वन्धन
चाहे वह हो जैसा। रह सकता है मुक्त मनुज ही
शुद्ध रूप मे वैसा॥
निखिल सृष्टि के हित मे जो है
परम भाव वैरागी। पूर्ण ज्ञान परिपुष्ट समाहृत
सकल वासना त्यागी॥
80/ जय महावीर
Page #83
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महावीर के तेजोमय तप
पावन गगा जल-से। धुल कर दीप्त-पवित्र बने थे
अपने सात्विक वल से॥
शुभ परिणाम पुण्य है उसका
अशुभ पाप का कारण । देख लिया था इस धरती पर
इसका कठिन निवारण।।
अपना हित जो चाहे उसको
सवका हित है करना । और नही तो पडता जग मे
उसको सदा विचरना॥
आत्मा का सव दु ख स्वय का
निर्मित पुञ्ज गहन है। आत्मलीन होने पर ही तो
निर्मल होता मन है ।।
ज्य महावीर / 81
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ऐसा होकर आत्मा खुद
परमात्मा ही बन जाती। फिर वह सारे कर्मों से खुद
छुटकारा है पानी ।।
खुद गवेपणा करनी होगी
आत्मा ही के द्वारा। नष्ट न होता आत्मा का यह
सात्विक दृढ ध्रुव तारा॥
महावीर ने जान लिया जो
भाव हृदय में जगता। वही मूल बन्धन का कारण
जीवो में है लगता ॥
इससे मुक्ति प्राप्त करना ही
__केवल ध्येय मनुम का। कभी नही बन्धन मे रहना
कोई श्रेय मनुज का ॥
82 / जय महावीर
Page #85
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महावीर तैयार खडे थे
मन को सबल बना के। मन मे पावन प्रभा समुज्ज्वल
की नव-ज्योति जगा के॥
इधर ज्येष्ठ भ्राता ने नूतन
उत्सव एक रचाया। दीक्षा के मगल क्षण के हित
पूरा नगर सजाया ।।
नये महोत्सव की खुशियाँ थी
व्यक्ति-व्यक्ति पर छाई। पर-घर मे आनन्द, लहर की।
धारा उमडी आई।
मोने चांदी के कलशो मे
पावन जल भरवाया। इन्द्र आदि देवो ने प्रभु का
सव अभिषेक कराया ।।
जय महावीर / 83
Page #86
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अगरु-धूप चन्दन से वासित
तन पर लेप लगाया। तन पर रेणम वस्त्राभूपण
प्रभु को वहाँ पिन्हाया॥
पुष्प सदा अम्लान रहे जो
उसकी माला लेकर। खुशी मनायी नर-नारी-ने
भेट हृदय से देकर ।।
दीक्षा की वह शोभा यात्रा
उमडी राज नगर से। बाल-वृद्ध औ युवक-युवतियाँ
निकल पड़ी घर-घर से॥
परम सिद्धि की प्राप्ति हेतु प्रभु
निकले राजमहल से। आत्मा को परिलक्ष्य बनाये
भव के कोलाहल से॥
84 / जय महावीर
Page #87
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शिविका एक शुभग थी जिसमे
बैठे प्रभु मन भावन। परिजन औ पुरवासी बैठे
उनके पग मे पावन ।।
देवो औ इन्द्रो ने मिलकर
दिव्य पालकी लाई। करते जय का नाद स्वय ही
पहले उसे उठाई।
प्रभु के महात्याग का आशिष
महिमा सिर पर लेते। जुटे हजारो भाव-भरे सव
उन्हे विदाई देते।
शुभ्र विजय मुहूर्त से बढकर
जात-खण्ड सव आये। 'जय-जय' का स्वर गूंजा, सवने
प्रभु के दर्शन पाये॥
ज्य महावीर / 85
Page #88
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प्रभु ने अपना वस्त्राभूपण
आकर यही उतारा। कुल-वृद्धा को सीप, कहा-यह
माता, सभी तुम्हारा॥
दो दिन का उपवास किया फिर
ज्ञान-विमल बिखराया। दीक्षा का सकल्प सुनाकर
परम लाभ को पाया।
कुल-वृद्धा ने प्रभु के सम्मुख
आशीर्वचन सुनाये। 'प्रभु के पथ पर विघ्न न होगे'
दृढ विश्वास दिलाये ॥
पञ्चमुष्टि-से लोच किया फिर
प्रभु ने सबके सम्मुख । 'जय हे, जय हे'-वोले जन-जन
होकर उनके अभिमुख॥
86 / जय महावीर
Page #89
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चार मुष्टि से मस्तक के सबकेशो को था त्यागा । एक मुष्टि से दाढी-मूंछो
का जीवन भी भागा ॥
स्वय इन्द्र ने ग्रहण किया थाउन केशो को अपने । उन केशो मे गुथे हुए थेदिव्य अपरिमित सपने ॥
सिद्धो को फिर नमस्कार कर
जन-जन को वतलाया । सिद्ध वही है जिसने अपनीआत्मा को है पाया ॥
आत्म-ज्ञान से बढकर कोई
ज्ञान नही है जग मे । विघ्न अनेको आते लेकिन
आत्मोन्नति के मग मे ॥
जय महावीर / 87
Page #90
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सिद्ध जगत मे सागर जैसे
है गम्भीर निरतर । कल्पवृक्ष-सा जग को देते
जान-लब्धि का अवसर ।।
जहाँ न सुख-दुख, पीडा कोई
अनुभव जन्म-मरण का। सिद्ध बताते वही मोक्ष है
कारण और करण का॥
जहाँ न तृष्णा, भूख-प्यास है
जहाँ न निद्रा विस्मय। मोह नही, उपसर्ग नही है
मोक्ष वही है निश्चय॥
सिद्ध 'अजीव' वही है, जिसको
सुख-दुख नही सताता। कभी अहित की आशका से
भीत नही हो पाता।
88 / जय महावीर
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इहना कह कर प्रभु ने तत्क्षण
साधु-धर्म स्वीकारा। पाँच महाव्रत के साधन को
__ मन मे तुरत उतारा॥
पहला व्रत है परम अहिसा
दु ख न जो उपजाता। पर पीडा मे जो लगता है
तम से तम में जाता।
सत्य-दूसरा जिसे जगत का
__ सारभूत ही मानो। सत्य अनन्त कि इसको अपना
परमेश्वर ही जानो॥
और अचौर्य नीसरा व्रत है
माधन का प्रिय सम्वल । लोभ-ग्रमित मन सिद्ध न होता
रहता प्रतिक्षण चचल ॥
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ब्रह्मचर्य है चौथा जिसका -
पालन वडा उचित है । ब्रह्मलीन इसके पालने से
रहता प्रतिपन्नचित है ॥
और पाँचवा अपरिग्रह हैइच्छाओ का
आवश्यक जो, ग्राह्य वही है
'जय-जय' के स्वर गूंजे नभ मे
अन्य मोह उद्धारक ॥
देव - लोक से प्रभु पर वरसे
90 / जय महावीर
गूंजा सव दिग्मण्डल ।
स्वय इन्द्र ने वाम कध पर
X
धारक ।
अनाघ्रत नव शतदल ॥
वडा अलौकिक मूल्यवान-सा
देव-दूष्य पट डाला ।
निर्मल वडा निराला ॥
X
X
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महा साधना के क्रम में प्रभु
जहाँ-जहाँ भी जाते। युवक-युवतियाँ, वाल-वृद्ध सव
सुनकर दौडे आते॥
वस्त्र हीन निज दिव्य रूप मे
महा साधना तत्परआते देख स्वय सव करते
तन-मन सकल निछावर॥
प्रभु की पावन चरण-धूलि पर
राज-मुकुट लुठित थे। जीवन-जीव-जगत के कोई
तत्त्व नहीं कुटित थे।
हप्तामलक गृष्टि थी सारी
दृग मे ब्रह्म समाया । जो भी जो सपना ले आया
अपना सर्वस पाया ।।
जय महाबीर /91
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नवम सर्ग
वैशाली मे सोम नाम का
एक विप्र था रहता। निर्धन था वह तरह-तरह का
दु ख अहर्निश सहता॥
92 / जय महावीर
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एक बार वह वडी विपद मे
पडकर था अकुलाया। भन की खातिर देश छोड कर
वह विदेश था आया॥
सोचा,अर्जन कर के धन जब
जायेगा वह घर मे। उसकी पत्नी स्वय करेगी
स्वागत मीठे स्वर मे॥
किन्तु भाग्य का खेल, वहाँ वह
कमा नही कुछ पाया। द्रव्य गांठ मे जो भी था वह
उसने वहाँ गँवाया।
अपने घर जव वापस आया
___ खाली हाथो ठूछा। तुरत डपट कर उससे उसकी
पत्नी ने ही पूछा।
ज्य महादीर / 93
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कहाँ गये थे मुद्रा लाने
कीडी एक न लाई। घर का भी सव द्रव्य गॅवाया
अच्छी रही कमाई ॥
तुम से अच्छे अन्य मभी है
घर बैठे सब पाये। प्रभु ने वीदान समय तो
सब को सुखी बनाये।
उस अवसर पर वर्धमान ने
मुद्रा दान किया था। रोज हजारो मुद्राओ का
दान महान दिया था।
तुम रहते तो यह दिन मुझको
नही देखना पडता। निर्धनता के दुख का काँटा
नही हृदय मे (गडता।
94 / जय महावीर
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किन्तु अभागे, चूक तुम
अब मै कैसे बोलू । इस पीडा को, कहो, आज मै
किसके सम्मुख खोलूं ॥
मैं तो फिर भी, यह कहती हूँ
वही आज तुम जाओ। महावीर है जहाँ, वही पर
जाकर शीश नवाओ॥
दया-मूर्ति है, करुणा-सागर
निश्चय कृपा करेगे। पर-उपकार सिद्ध पुरुप है
सव दारिद्रय हरेगे॥
सोम विप्र को लगा कि जैसे
राह पड़ी दिखलाई। वर्धमान के दान-धर्म की
गाधा पडी मुनाई।
ज्य महावीर /95
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झटपट तीव्र वेग से चलकर
वह बिहार मे आया। शीश झुकाकर प्रभु के आगे
अपना कष्ट सुनाया।
प्रभु के पास गेप था अव तो
देव दूष्य-पट केवल । उसको आधा चीर तुरत ही।
दिया सोम को सम्बल ॥
हर्षित होकर सोम वहाँ से
घर मे अपने आया। वस्त्र दिखाकर, पत्नी से वह
वोला-"देखो, लाया ।
मैं क्या जानूं कैसा है यह
कैसी इसकी लीला। प्रभु ने खुद ही मुझे दिया है
अपना पर चमकीला ॥"
96/ जय महावीर
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पत्नी बोली-"प्रभु ने तुमको
__ महा प्रसाद दिया है। निश्चय मगल होगा, प्रभु ने
आशीर्वाद दिया है।"
पुलकित तन वह चली वहाँ से
बुनकर के घर आई। बोली यह परिधान सलोना
लाई हूँ मैं भाई॥
मुझे चाहिए इसकी कीमत
जो भी मोल लगाओ। मूल्य भला क्या दोगे, कुछ तो
मुझको जरा वताओ॥
वुनकर बोला-“कहाँ मिला है
यह अनमोल वडा है। इसके रेशे-रेशे मे तो
अद्भुत रत्न जडा है।
जय महावीर /97
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इसका आधा जहाँ पडा है
दे दो यदि तुम लाकर । सच कहता, सब कष्ट मिटेगा
उमको ही बस पाकर।
लाखो मुद्रा तुम्हे मिलेगी
जीवन सुखद बनेगा। ऐसे तो यह आधा ही है
कैसे कोई लेगा।"
तुरत सोम से सब कुछ कह कर
बोली-अब तुम जाओ। प्रभु को अपनी विनय सुनाकर
आधा पट ले आओ।
सोम गए, फिर झट से प्रभु के
आगे शीश नवाया। लेकिन कोई शब्द न फूटा
वात न कुछ कह पाया।
98 / जय महावीर
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उल्टे पाँव- वहाँ से लौटे
मन ही मन सकुचाते। यही सोचते, कैसे प्रभु को
मन की बात बताते॥
लेकिन प्रभु सर्वन, सभी का
सव कुछ देख रहे है। बिना कहे, गति सब के मन की
क्षण-क्षण लेख रहे है ॥
सोम बढे, तो देखा आगे
उडता वह पट आया। यह आश्चर्य, वही झाडी मे
दिखा पडा उलझाया।
प्रभु की दया अपार हुई थी
हमने ही घर आये। आकर अपनी पत्नी को फिर
मन्दर पट दिखलाये॥
ज्य महाबीर / 99
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पत्नी ने बुनकर को देकर
दुख-दारिद्रय भगाया। करुणा-सागर की करुणा पा
सुख सौभाग्य जगाया ।
तव से ही प्रभु पूर्ण दिगम्बर
रहने लगे धरा पर। शान्त-विशुद्ध -अनन्त- अनावृत
जैसे निर्मल अम्बर ॥
100 / जय महावीर
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दशम सर्ग
त्याग-मूत्ति नव ज्योति अकम्पितवीत राग सब ज्ञान-समन्वित । प्रभु थे कठिन साधना मे रतध्यानावस्थित खडे विटप-वत् ।
ज्य महादीर/ 101
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क्षय करना था कर्म पुरातनअवरोधक मन का अवगंठन । उसी कुमार ग्राम का भोलागो-पालक आकर था बोला।
"मेरे यही पडे है गोचरजरा ध्यान तुम रखना इन पर । जरा देखना भाग न जायेइनको कोई चुरा न पाये।"
बोला और गया फिर घर मेलौटा वापस सॉझ प्रहर मे। बोला-"दिखने नही यहाँ परकहाँ गये सव मेरे गो-चर?"
प्रभु थे ध्यान-मगन क्या बोलकैसे उसकी गाँठे खोले। विना सुने कुछ, गोपालक फिरचला . ढूंढने गोधन आखिर।
102 / जय महावीर
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गाँव-गाँव मे घर-घर ढूंढावन, पर्वत पर जा कर ढूंढा। यहाँ वहाँ सब जगह अटकतारात-रात भर रहा भटकता।
पता न लेकिन कुछ भी पायासारी रात रहा भरमाया। खूब सवेरे जब आता हैपास वही गो-धन पाता है।
प्रभु है अविकल ध्यान लगायेगो-वन पास उन्ही के आये। गो-पालक को लगा कि जैसेउसने ही भटकाया ऐसे ।
मूढ हृदय मे क्रोध जगा के
म्सा बैलो का ही ला के। प्रभु पर खीच चलाया तत्क्षणअपने-पन से होकर उन्मत ।
ज्य महादीर / 103
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इन्द्र स्वयं फिर दौडे आयेहाथ पकड कर सव समझाये । कहा कि देखो परम तत्व हैजग मे इसका नव महत्व है।
मत समझो, कोई साधारणजन है, यह तत्वो का कारण। वर्धमान है महावीर येतप. पूत भव-इष्ट धीर थे।
सुन कर, गोपालक के मन मेभाव जगा, कुछ नूतन क्षण मे। गिरा चरण पर अश्रु बहायाअपना सारा पाप मिटाया।
प्रभु का फिर गुण-गान सुना केचला हृदय से वह हर्पा के।
104 / जय महावीर
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एकादश सग
प्रभु थे ज्ञान-तत्व वैरागी भव मे, भव से दृढ वैरागी। ज्योति-ज्ञानमय-विभा निरतरफैल रही थी भूपर घर-घर ।
जय महावीर / 105
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L
परम पूज्य इस वसुन्धरा कोकरने को कल्याण धग का
कठिन साधना मे रत रहतेस्वयं अजाने सब कुछ
कुछ
सहते ।
।
अस्थिक गाँव पधारे चल करसोने से निकलुप पिघल यहाँ एक मंदिर का शूलपाणि
यक्षावृत
-
कर ।
भीपण
कर्पण |
यक्ष क्रूर था, सब डरते थे
मरते थे 1
उसके भय से सब वहाँ किसी मे शक्ति मन मे ऐसी भक्ति नहीं थी ।
नही थी
106 / जय महावीर
प्राण बचाये
जिससे कोई क्रूरं यक्ष को मार भगाये ।
प्रभु थें उस बैठे निश्चल
मंदिर मे जा केध्यान लगा के |
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यक्ष रात मे घात लगा केटूटा उन पर बज्र गिरा के। अट्टहास फिर किया जोर सेअशनि-पात के तुमुल शेर से।
दिग-दिगन्त मे शोर हुआ थागर्जन चारो ओर हुआ था। बनकर दानव गज के जैसे, बडे-बडे फिर विषधर जैसे।
रूप विकट वह धर कर भू परकरता था आघात भयकर। लेकिन निश्चिन्त अचल थेक्षण भर को भी नहीं विकल थे।
ध्यान लगाये रहे निरन्तररह कर भू पर, भू से ऊपर । यक्ष भयकर हआ पराजितपाकर दारुण शक्ति अपरिमित ।
ज्य महावीर / 107
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अपना सब अपराध वता करबैठा पग मे शीश नवा करप्रभु से भीख क्षमा की माँगी - विकट क्रूरता पल मे त्यागी ।
सुखी हुए सब जन पुरवासीहोकर प्रभु के दृढ विश्वासी ।
108 / जय महावीर
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द्वादश सर्ग
एक साधु था क्रोध-विवश वह
मर कर चैन न पाया था। नाम चण्डकौशिक था उसका
सर्प-योनि मे आया था।
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दृष्टिविप वह व्डा क्रूर था
सब को काट गिराता था। वडा भयकर था, वह वन मे
सव उत्पात मचाता था ।।
जगल मे उस राह न कोई
कभी भूल से चलता था। क्रोध-अध वह जिसे देखता
उस पर जहर उगलता था।।
प्रमु ने ज्यो ही देखा जगल
दया उमड कर आती है। प्रभु की पावन कृपा दृष्टि
वन प्रान्तर नहलाती है।
उसकी बॉबी के सम्मुख प्रभु
जाकर ध्यान लगाते हैं। कण-कण ध्यानावस्थित मन के
सौरभ खुद भर जाते है।
110/ जय महावीर
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कुपित स५ न सापा, ५७
कौन यहाँ पर आया है। किसे काल ने बरबस ऐसे
असमय ग्रास बनाया है।
उठा विकट फुकार मारता
__ तान भयकर फण काला । भीषण विप के विषम दाह से
लगता था वह मतवाला॥
किया प्रहार क्रुद्ध हो प्रभु पर
कम कर दाँत गडाता है। अग-अग मे विष से भग्वार
काँटा खूब चुभाता है ।।
लेकिन यह क्या, या अचम्भित
प्रभु को निश्चिल देख वहाँ। अरे अभागे हुआ वहीं क्या ?
जहर भयकर गया कहाँ ।
ज्य महावीर | 111
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उठा पुन वह, जहर अँगूठे.
मे प्रभु के फिर दे मारा। किन्तु चकित था, देख कि उससे
निकली दुग्ध धवल धारा॥
शीश उठा जो देखा प्रभु को
शान्ति तनिक मन मे आई। प्रभु के मुख-मण्डल की आभा
धरती तक पर थी छाई॥
समझ गये प्रभु यही समय है
___ इसको कर्म छुडाना है। सर्प-योनि से इसे उठा कर
देव-योनि मे लाना है।
साधु विमल था, किन्तु ग्रहो के
फेरे मे भरमाया है। पथ से स्वय भटक कर ऐसा
आज विपम बन आया है।
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प्रभु ने कहा कि "देखो कौशिक
क्रोध भयकर शान्त करो । मन मे प्रभु का प्रेम जगाकर
करुणा का मधु स्रोत भरो ॥
क्रोध, शिला की रेखा जैसे
मन से कब मिट पाता है । इसके पास से बँध कर नरघोर नरक मे जाता है ॥
शमन करो यह क्रोध भयकरदया
आत्मा को विकसित करके
-
भाव मन मे लाओ ॥
तुमपरम शान्ति अव पा जाओ ।। "
प्रभु के इतना कहने ने ही
पूर्व जन्म नव ज्ञात हुआ ।
क्रोध मिटा, तम धुला अचानक
जागा नया प्रभात हुआ
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क्षमा माँग वह प्रभु से निश्चल
देव योनि को पाता है। तब से ही वह वन - प्रदेश की
मुखद-सुभग बन जाता है।
114 / जय महावीर
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त्रयोदश सर्ग
जान-रूप थी प्रभु की आभा
देख नभी होते। दूर-दूर से लोग उमडकर
उन्हें देखने आते॥
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प्रभु भी अपनी चरम शान्ति से
सवको दर्शन देते। अहोभाग्य था सभी जनो का
उनसे आशिप लेते।
उनकी ज्ञान-विभा का सबको
नव प्रकाश था मिलता। परम विरागी का प्रभाव था
सब जीवो पर पडता॥
सुरभी पुर से राजगृह को
चले विमल मन प्रभुवर। गगा पार चले थे करने
एक नाव मे चढ कर।।
उसी समय पाताल लोक का
सुदप्ट्र देव अकुलाया। पूर्व जन्म का वैर अचानक
उसके मन मे आया ।
116/जय महावीर
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प्रभु से उसको बडा द्वेष था
पहले किसी जनम मे। सोचा, विघ्न डाल दूं चल कर
इनके प्रकृति नियम मे।
सहसा ज्वार उठा गगा मे
ऑधी भीषण आई। लगा कि जैसे महाप्रलय की
धार उमड लहराई ॥
वहाँ नाव के अन्य सभी जन
बेहद थे घबडाये। क्रूर देव ने महा उपद्रव
के थे जाल विछाये ।।
किन्तु अचानक कम्बल-गम्बल
नाग-देव दो जाये। देखा नैया मे बैठे है.
प्रभवर ध्यान लगाये ।।
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दोनो ने मिल कर उस राक्षस
___ को था तुरत भगाया। फिर तो शान्ति चतुर्दिक छाई
सबका मन मुस्काया ।।
सबने खुशी मनाई मन मे
नयी लहर लहराई। सबने प्रभु के विमल गुणो की
कीर्ति समुज्ज्वल गाई ।।
प्रभु के धैर्य-ध्यान की गाथा
स्वय इन्द्र थे गाते। इन्द्र पुरी की देव - सभा मे
सवको स्वय सुनाते ॥
सुनकर सगम देव परीक्षा
प्रभु की लेने आया। विकट पिशाची रूप वरन कर
ऊधम खूब मचाया।
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व्याघ्र-सर्प-बिच्छू तक बन कर
उनको खूब डराया। नयी अप्सराओ को लाकर
मन भर उन्हे लुभाया॥
लेकिन इन उपसर्गो से भी
भगवान् तनिक न डोले। सव प्रहार सहते थे निर्भय
शान्त - विशुद्ध - अवोले ॥
ऐसे ही छग्माणि गाँव मे
भगवान स्वय पधारे । ध्यान लगा वे क्षय करते थे
पूर्व वार्म को सारे।।
कायोत्सर्ग ध्यान मे थे जब
वोई ग्वाला आया। पन्हे देखते रहना'-वह कर
वैन उन्हे दिखलाया।
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कुछ क्षण बाद वहाँ जव आया
देखा बैल नहीं थे। कीन बताता, बैल वहाँ से
भागे अभी कही थे।।
उसको क्रोध जगा वह प्रभु को
___ मन-ही-मन धिक्कारा। कठिन काठ की कील श्रवण मे
ठोकी, वह हत्यारा॥
फिरभी निश्चलध्यान लीन प्रभु
___ डिगे न अपने ब्रत से। रहे अचल ध्यानस्थ अखडित
पुण्य-सिन्धु शाश्वत से॥
कुछ दिन वीते, खरक वैद्य ने
उनका शल्य निकाला। पाप-कर्म के क्षय का अन्तिम
पाप भस्म कर डाला। xx
X
100 जरा सतातीर
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ऐसे ही जब श्रावस्ती मेमहावीर थे
आये ।
गोशालक ने अग्नि-शूल थेउन पर तान चलाये ॥
गोशालक खुद कहता, मैं हीतीर्थकर हूँ जग मे । कही है
कोई बाधा नही
मेरे जीवन मग मे ॥
प्रभु ने उसकी सारी गति-मति
क्षण भर में पहचानी | मेरा धर्म-शिष्य था, लेकिनअब भी है अज्ञानी ॥
सुनकर गोशालक चिल्लाया
अभी भस्म कर दूंगा । अग्नि-धूल यह तेरी खातिर अभी तुरत मे लूंगा ||
जय महादी 1121
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कह कर उसने तेजो लेह्या
छोडी मुंह विचका के। लेकिन है आश्चर्य, मग खुद
अपना काल बुला के॥
कर प्रदक्षिणा अग्नि-शूल ने
देखा प्रमु को मन से। किन्तु जलाया गोशालक को
उसके अशुभ लगन से॥
प्रभु के सारे पाप पूर्व के
क्षय निश्चय हो आये। ध्यानलीन वे परमावस्था
मे थे दृष्टि गडाये॥
जग का हो कल्याण निरतर
ध्यान लगाये रहते। ज्ञानामृत की वर्षा होती
जब भी वे कुछ कहते॥
122/ जय महावीर
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लोकोत्तर कल्याण सृष्टि का
उनका परम नियम है। वीतराग के पथ में तिल भर
नही कही अब तम है।
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चतुर्दश सर्ग
दीर्घ तपस्वी महावीर ने
___ नूतन ज्योति जगाई। भव का शाश्वत हित हो जिसमे
ऐसी राह दिखाई॥
124/जय महावीर
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तप से तेजोमय जीवन की
नयी शिखा थी जगती। नयी सिद्धि की आभा तन पर
प्रतिदिन रही दमकती॥
एक समय वे पाँच मास
__पच्चीस दिनो का व्रत ले। अभिग्रह के नव कठिन पथ पर
साधन मे ही रत थे।
द्रव्य, क्षेत्र औ' काल-भाव का
पालन नियम कठिन था। परम सिद्धि के तपोतेज के
साधन का ही दिन था।
ऐसे ही क्षण चदन वाला.
के उडद के वकले। खले सूप के कोने से ही
अपने हाथो मे ले ॥
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ग्रहण किया था अभिग्रह से सबदान विभव सुखदाता | महावीर तीर्थकर स्वामीभूतल के थे त्राता ॥
चम्पापति राजा की पुत्री - थी वह चदन वाला ।
पापोदय के कारण जीतीपीकर विप का प्याला ॥
विकना उसे पडा था अपनेचम्पापति के घर से ।
सेठ धनावह के घर आकर - रहती थी वह डर से ॥
इसकी पत्नी मूला उससे - बेहद ईर्ष्या करती ।
उसके सिर पर वडी लाछनादिन प्रतिदिन थी धरती ॥
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प्रभु के स्वीकृत अभिग्रह सारेपूर्ण यही थे होते । सती पवित्र हुई थी चदनमन को धोते - धोते ॥
विपद अनेको जीवन मे थीविकट रूप धर आई । लेकिन वाला रही धैर्य से कभी नही घबडाई ॥
तलघर मे मूला ने डाला - कष्ट अनेको देकर |
किन्तु आज चन्दन थी दर पर - प्रभु की भिक्षा लेकर ।
X
X
X
प्रभु तो कठिन तपस्या की ही
मूर्ति स्वयं भू पर ।
कुछ भी शेप अप नही था
उनके पग के ऊपर ॥
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सभी शुभाशुभ कर्मों का क्षय
तप से स्वय किया था। सयम से तप-ध्यान प्रकाशित
केवल ज्ञान लिया था।
जो उपसर्ग मिले थे पथ मे
जो भी सकट आये। धैर्य - तपस्या - समतापूर्वक
सवको सरल बनाये ।
दमित किया था राग-क्रोध-मद
लोभ हृदय का सारा। वीतराग नव ज्योति भुवन के
भव का पुण्य - सहारा॥
100/जय महावीर
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पंचोदश सर्ग
सभी तरह परिपुष्ट हुए प्रभु
तप के तेज प्रखर से। दोप्त भुवन मे हुई चेतना
पावन पुण्य प्रहर से॥
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-11n
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सकल सृष्टि की पूर्ण व्यवस्था
का जत्र ज्ञान समाया ।
होकर वे अहित जगत को - शुद्ध ज्ञान समझाया ॥
कुछ भी दृश्य अदृश्य नही थाउनके दृग के आगे ।
भव का विभव सभी सम्भवथालेकिन सब थे त्यागे ॥
मूर्त-अमूर्त नही था कुछ भी तीनो काल प्रकट थे । तपस्या उनकीतप के दाह विकट थे |
उग्र- प्रचड
उनके केवल ज्ञान-प्राप्ति से
इन्द्रासन तक
" तुरत रचाएँ" समवसरण हमदेव यही थे वोले ॥
डोले ।
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इन्द्रलोक मे सभा जुटाकर
तीर्थकर को लाये। पहले प्रवचन उसी सभा मे
प्रभु ने उन्हे सुनाये॥
चलकर पावन पावापुर मे
तीर्थकर है आते। देव यहाँ पर सभा दूसरी
आकर तुरत लगाते।
आद्य धर्म का बोध दिया था
महाबीर ने उग धण। पुलकिन सुनवार वहाँ हुआ या
देवो का समयमरण ।।
पावापुर मे लगा हा पा
वित जन का मेला। भुति-से ब्राह्मण अपना
दिखा रहे थे खेला ॥
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132 / जय महावीर
सुना कि कोई महावीर हैतीर्थकर वन तपोनिष्ठ सर्वज्ञ, ज्ञान के दीपक नए जलाए ॥
सुनकर उनके अह भाव को
आए ।
गहरी चोट लगी थी ।
उनके मन मे कोई भीषणपातक खोट जगी थी ।
शास्त्रार्थं वे करने आये
उस क्षण भरी सभा मे । आकर लेकिन लगे डूबने
उनकी ज्ञान विभा मे ॥
महावीर ने कहा कि आत्मा
अन्तस्तत्त्व प्रबल है ।
शेप सभी कुछ द्रव्य, सृष्टि मे - मन से बड़ा निवल है ॥
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________________
किन्तु स्वरूप-दृष्टि जब जगती
__ एक सभी लगती है। जड-जगम मे भेद न रहता
प्रीति अचल पगती है।
काम-क्रोध सब जड पदार्थ है
उससे भिन्न जगत मे। आत्मलीन ही रहता केवल
भापित ज्ञान सतत् मे ।।
अन्तर मे ही मोक्ष और बन्धन
का द्वार छिपा है। अपने हाथो ही मगल औ
सव सहार छिपा है।
जो विनाता वह ही आत्मा
___ आत्मा ही विनाना। गद्ध ज्ञानमय दर्शन से यह
तत्त्व मनुज हे पाता।
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आत्मा मे जो लीन वही तो
सम्यक दृष्टि कहाता ।
वही मनुज करतव से अपने
परमात्मा वन जाता ॥
आत्मा का कुछ नाश न होता
यह ही है अविनाशी ।
परम शुद्ध आत्मा रहती है
ज्ञान-सुधा की प्यासी ॥
134 / जय महावीर
सुनकर इन्द्रभूति के
मन में
प्रेम उमड भर आया ।
झट से उठकर प्रभु के पग मे -
उसने शीश नवाया ॥
मिटी सभी शकाएँ मन की
कोई द्वन्द्व नही था ।
धुला वही क्षण भर मे सारा
जो भी कप कही था ॥
Page #137
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अपने सब शिष्यो के सग हौ
दीक्षा प्रभु से लेकरइन्द्रभूति भी हुआ विश्व मेपुण्य लोक का सहचर ॥
प्रभु ने फिर विचरण कर जग मे
ज्ञान-किरण विखराई ।
घने तिमिर मे पडे मनुज को
सच्ची राह बताई ॥
पूर्ण बहत्तर वर्ष हुए जव -
देश-देश के
पावापुर मे आ के । ज्ञान-पिपासुजन को पास विठा के ॥
प्रभु ने अन्तिम दिव्य देणना
नवको वहाँ सुनाई ।
प्राणिमात्र के दिन की सारी
वाते वहा
बनाई ॥
महावीर 135
Page #138
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उर्ध्वश्वास जग आया सहसा
उस अमर्त्य के मन मे। ज्योति-ज्योति से मिली अकम्पित
निर्मल मर्त्य भुवन मे।
उर्ध्वाकाश हुए वे भव के
देह-गेह से ऊपर। लेकिन भास्वर ज्ञान-ज्योति वह
सदा रहेगी भू पर।
136 / जय महावीर
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षष्ठोदश सर्ग
भाव-ज्योति का अस्त हुआ पर
द्रव्य ज्योति जग आये। दीपोत्सव हो उठे, सवो ने
नव - नव दीप जलाये।
उस शादी 127
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अन्तिम था कल्याणक उत्सव
नई लहर लहगई। इन्द्रादिक देवो ने मिलकर
प्रभु की चिता सजाई॥
क्षीर सिन्धु के जल से प्रभु का
शुभ अभिपेक कराया। हरि चन्दन का लेप लगाकर
रेशम वस्त्र चढाया ॥
स्वर्ण-रत्न के मुकुट और
___आभूषण उन्हे पिन्हाए। देवो की निर्मित शिविका पर
प्रभु को ला वैठाए।
सव देव-मनुज मिल शिविका को
सादर वहाँ उठाया। शोकाकुल से अश्रु-भरे वे
चिता जलाने आए।
138/ जय महावीर
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पूर्ण हुई जब सारी विधियाँ
चिता लहक लहराई। देवो ने फिर उनकी महिमा
सवको वहाँ सुनाई॥ xxx
तीर्थकर के ज्येष्ठ शिष्य थे
गौतम परम तपस्वी। ज्ञान - साधना - पुष्ट हृदय से
दृढ चैतन्य मनस्वी ।।
अडिग स्नेह था प्रभु पर इनको
थे अखण्ड विश्वासी। सदा श्रवण करते थे जैसे
___ मुग्ध चातकी प्यासी॥
यही स्नेह तो परम सिद्धि मे
विघ्न स्वरूप बना था। उनकी निर्मल आत्मोन्नति मे
बाधा बना तना था ।
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प्रभु ने देखा, इस बाधा को
__ आज तोडना होगा। इसके मन को आत्म-ज्योति से
त्वरित तोडना होगा।
जिस दिन था निर्वाण, उन्होने
उनको पास बुलाया। धीर भाव से गौतम को फिर
अपने पास बिठाया।
कहा कि गौतम पास गाँव मे
___ अभी तुरत ही जाओ। वहाँ देव शर्मा ब्राह्मण को
तुम प्रतिवोध सुनाओ॥
आज्ञापालक गौतम तत्क्षण
दूर वहाँ से आए। जाकर ब्राह्मण को फिर गुरु का
सब प्रतिबोध सुनाए ।
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चले वहाँ पर पथ पर अपने
धीर बनाए मन को। गुरु के पावन देह त्याग की
खबर मिली तब उनको॥
लगा कि जैसे वज्र गिरा हो
फूट-फूट कर रोये। गुरु की स्मृति मे आँसू-जल से
मन का कल्मष धोये ॥
करुण विलाप किया फिर क्षण-क्षण
प्रभु का नाम सुनाकर। मुझको ऐसे छोड दिया क्यो
आज यहाँ पर गुरुवर ॥
सहसा लगा कि मन मे जैसे
ज्ञान उभर कुछ आया । तात्विक वोध हृदय मे निर्मल
फूल सदृश मुस्काया ॥
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समझ गए, निर्मोही का मन
मोह घिरा क्यो होगा। मोह तिमिर है, उससे वेष्टित
ज्ञान शिरा क्यों होगा।
एक-पक्ष इस स्नेह प्रवल को
मन-ही-मन धिक्कारा। दृग से गुरु का रूप मनोहर
__मन मे तुरत उतारा।।
लगा कि जैसे दिव्य मूर्ति
भगवान् स्वय हैं आए। अपनी दिव्य प्रभा से भू पर
नव-नव ज्योति जगाए॥
परम विरागी थे संन्यासी
सव कुछ क्षण मे पाए। केवल ज्ञान मिला, तव भव मे
प्रभु की महिमा गाए॥
142 / जय महावीर
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महावीर तीर्थकर जय-जय
जय-जय ज्ञान-विधाता। जय हे, कठिन तपस्या भू की
जय हे जग के त्राता॥
परम सिद्धि के दायक जय हे
परम ज्ञान-वैरागी। जय हे भव की सकल सिद्धियाँ
जय हे निश्चल त्यागी॥
जय हे ज्ञान समन्वित जग के
ज्योति-शिखर अधिवासी। जय हे आत्मोन्नति के धारक
जय अखण्ड विश्वासी॥
जय हे मानव-गुण-गरिमा के
दिव्य शिखर अभिमानी। जय हे तप पूत नर पावन
परम ज्ञान के ज्ञानी॥
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जब तक सूरज चाँद रहेगा तेरी शिखा जगेगी ।
तेरे पग की धलि निरन्तरसृष्टि शीश पर लेगी ॥
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