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आत्म-भाव
तीर्थकर भगवान् श्री महावीर के तपोनिष्ठ-महा समुद्रवत् जीवन को पढकर, दृष्टि के सम्मुख वही अपार महासिन्धु लहरा उठता है, जिसका न ओर है, न छोर । अनन्त, सीमाहीन जल-राशि । केवल जल-राशि । 'और उसकी उच्छल अगाघ तरगे।
भगवान् श्री का जीवन साधना के उस पुजीभूत उन्नत शिखर-सा है, जहाँ पहुँचना किसी भी साधारण मनुष्य के लिए अति दुष्कर है, फिर मेरे जैसा सभी तरह से अल्पज्ञ, साधन-विहीन प्राणी उस शिखर की कल्पना भी कर ले, तो यह उसके पूर्व जन्म का पुण्य ही कहा जाएगा।
'जय महावीर' आपके सम्मुख है।
कैसा है ? मैं नहीं कह सकता । अपनी ओर से मैं तो इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि तप मूर्ति भगवान् श्री के तेजोमय जीवन के विभिन्न अशो का स्पर्शमात्र ही इस पुस्तक मे किया गया है। उस अगाध महासिन्धु को पूर्ण रूप मे भला किसने रेखाकित, मन्दाकित किया है ? अथाह सागर लहरा रहा है-तट पर खडे प्राणी अपने-अपने पात्रानुसार जल-राशि ग्रहण करते है । किन्तु, किसी ने सर्वांश मे सिन्धु को ग्रहण किया? कौन कर सकता है ? तीर्थकर भगवान् महावीर अथाह, अनन्त पारावार है । इनके जीवन के विभिन्न अगो को एक नजर देख लेना भी सबके वश की बात नही । जो भी इस ओर दृष्टिपात करता है-वह कभी एक पक्ष, कभी दूसरा पक्ष-सम्पूर्ण रूप मे किसने देखा? अथाह पयोधि को किसने वांधा है ?
प्रस्तुत काव्य मे जीवन-पक्ष ही प्रधान है । सैद्धान्तिक पक्ष स्पर्श-मात्र ही है। कारण-सैद्धान्तिक पक्ष अभेदकारी है। सभी तीर्थंकरो के साथ सैद्धान्तिक बाते एक ही रही है उनमे भेद नहीं है । किन्तु, जीवन-पक्ष मे भेद रहा है । जिस प्रकार आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव के तपोनिष्ठ जीवन की तुलना दयामूर्ति भगवान नेमिनाथ मे अथवा किसी अन्य से नहीं की जा सकती, इसी प्रकार 24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर के तपस्यामय जीवन की समकक्षता, दूसरे से नहीं हो सकती।