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वर्धमान की तपस्या उनकी तपस्या थी। साधना के मार्ग मे उन्होने जो परिसय सहे वे उनके थे। उन अनुभवो की तुलना दूसरे से नहीं की जा सकती । जीवन-पक्ष सदा भेदमय ही रहा है।
अन्य की रचना भी एक सयोग ही है । तीर्थंकर भगवान् महावीर का प्रसग चल उठा था। उनकी अथाह-अगाध तपस्या-निर्भयता आदि की चर्चा चल रही थी। सहसा मन मे आया, भगवान श्री का जीवन-चरित लिखा जाय। इनके जीवनचरित ऐसे तो बहुत है, किन्तु काव्य-रूप मे मुझे नहीं मिले। और फिर मैं जो लिखने बैठा, पुस्तक समाप्त करके ही उठा। लगा उन दिनो भगवान् प्रतिक्षण मेरी दृष्टि के सम्मुख रहे हैं । ऐसा भी लगा है कि उन्होंने स्वय लिख लिया है - बात भी सही है-मैं तो, निमित्त मात्र ही हूँ। वे जिस रूप मे प्रेरित करे मैं प्रस्तुत हूँ।
अन्त मे-जिन लोगो से पुस्तक प्रकाशन मे थोडी भी सहायता मिली है, उनके प्रति आभार प्रकट करते हुए, श्रमण भगवान् महावीर को हार्दिक कोटानुकोटि वन्दन ।।
।। शुभास्तु॥
-माणकचन्द रामपुरिया
रामपुरिया भवन, बीकानेर (राज.) महावीर जयन्ती, 22 अप्रैल 1986