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जान चेतना का जगता हैभुवन प्रकाशित-सा लगता है। द्वेष-घृणा सव धुल जाते हैद्वार पुण्य के खुल जाते है।
मानव-मानव बनने लगताज्ञान हृदय मे जगने लगता। लेकिन यह भी तव सम्भव हैहोता पावन नर उद्भव है।
और नही तो कोई कैसेधो सकता है अन्तर कैसे ? ऐसे ही जव घटा घिरी थीसुख की सारी घडी फिरी थी।
हिमा का साम्राज्य विद्या थामन मे निर्धन भाव छिपा था। मानव-दानव से लगते थेअच्छे भाव नहीं जगते थे ।
जय महावीर /17