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वहाँ द्वेप-हिसा जगती हैअशुभ घृणा मन मे पगती है । तप का निर्मल भाव नही हैसयम- शान्त प्रभाव नही है ।
शुद्ध तत्व से हीन हृदय मेसत्व गुणो के निर्मम क्षण मे । भव को कैसे शान्ति मिलेगीज्ञान ज्योति की प्रभा खिलेगी ?
कैसे कोई मन विहँसेगाकैसे पुण्य विभव का लेगा ? सोच, धरित्री अकुलाती हैसमझ नही कुछ भी पाती है ।
तभी अचानक दिव्य गगन सेज्योति फूटती चेतन मन से । कोई मार्ग दिखा जाता हैसुन्दर विश्व बना जाता है ।