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उतरे भव मे,
रोम-रोम
भव से निर्मलवनकर दिव्य प्रकाश । मे देवानन्दाके जागा
सहसा चौदह स्वप्न जगे थे
भाव भरे
भरपूर ।
उल्लास ||
वृषभदत्त थे, मुनकर बोले
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कष्ट हुआ सब दूर ॥
तुमने देखे स्वप्न भामिनीपुण्यमयी
होगा सभी गुणो से
अभिभूत । भूषित
कोई दिव्य सपूत ॥
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किन्तु सभी का स्वप्न धरा पर
कव होता है पूर्ण ।
विघ्न अनेको आकर करतेप्रतिक्षण चकना चूर ॥
जय महावीर / 25