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यही भेद है, जव जगता है
सत्य किरण का रूप । नित-नित खिलता, पर असत्य का
हो जाता विद्रूप॥
निर्मल बीज पडा था मन मे
निर्मल था सस्कार। फूट पडा वह अनायास ही
वनकर पुण्य अपार ।।
वैमानिक-निकाय मे जव थे
देव रूप मे लीन। सोचा, धरती पर आने का
लेकर जन्म नवीन ।।
वैशाली के
वृपभदत्त कीपत्नी प्रभु-लवलीन। की कुक्षी मेहोकर परम प्रवीण।।
देवानन्दा
24 / जय महावीर