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त्रिशला भी थी ध्यान लगायेमन मे प्रभु को सदा बसाये।
दोनो ने ही यहाँ धग परकिये पुण्य ही थे जीवन-भर ।
तन पवित्र औ शुद्ध हृदय थाजीवन साधनमय निश्चय था।
देकर श्री, नन्दी वर्धन कोराजपाट औ सारे धन को।
कर सथारा स्वर्ग सिधारेचमके नभ मे दिव्य सितारे।
महावीर ने मोचा मन मेसब का हो कल्याण भुवन मे।
महज अठाइस वर्प हुए थेयौवन के उत्कर्ष हुए थे।
सोचा, इस गृहस्थ आश्रम कोस्वय तिलाञ्जलि देगे तम को।
68 / जय महावीर