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रोम-रोम था उसका पुलकितमहानन्द की छवि से शोभित । जागी मन मे नयी विभा-सीहो ज्यो प्रभु-दर्शन की प्यासी॥ -
लगा कि जैसे जाग गयी हैकिरण-किरण तक नयी-नयी है। सिह सामने आकर सुन्दरदेख रहा था उसको जी भर ।।
हाथी भी फिर वहाँ खडा थाऐरावत-सा बहुत बड़ा था। वृपभ एक सुन्दर-सा आयासुख सौभाग्य धरा पर छाया॥
फिर तो, खुद ही लक्ष्मी आईशेष बचा जो सब कुछ लाई। युगल, पुष्प माला थी मनहरनये-नये-फूलो मे गुंथकर ।।
34 / जय महावीर