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कदलि-खम्भ सब रोप रहे थे
वन्दनवार सजाते। मुकुल-बकुल तक पर थे भँवरे
गुन-गुन कर मँडराते ।
चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी थी
मध्यरात की बेला। राज महल मे लगा हुआ था
साधु-जनो का मेला ।।
ऐसे ही क्षण, प्रभु भी मानव- ।
तन मे स्वय पधारे। बने महारानी त्रिशला के
दृग के नूतन तारे॥
शुभ मुहूर्त वह मगल क्षण था
भाव-सुमन मुस्काया। शकुन सुमगल आज धरा पर
स्वय उतर कर आया ।।
जय महावीर /43